________________ आचार्य हरिभद्रसूरि योगदृष्टि समुच्चय में सदनुष्ठान का लक्षण बताते हुए कहते है - आदरः करणे प्रीतिरविघ्न सम्पदागमः। जिज्ञासा तज्ज्ञसेवा च सदनुष्ठानलक्षणम्॥६८ जिस अनुष्ठान के प्रति आदर प्रीति, विघ्नाभाव, सम्पदागम, जिज्ञासा, तज्ज्ञसेवा तथा ज्ञानिओं का अनुग्रह आदि सात भाव जहाँ संभवित होते है वह सदनुष्ठान कहलाता है। (1) आदर - हृदय में जिन-जिन अनुष्ठानों के प्रति आदर होता है उन-उन अनुष्ठानों को सेवन करने के लिए प्रयत्न विशेष सहज हो जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति हार्दिक बहुमान-प्रेम वह आदर कहलाता है। (2) करने में प्रीति - जिस-जिस अनुष्ठान का योग मिले। उन-उन अनुष्ठानों का आचरण करने में अतिशय राग होगा। अर्थात् आदर के साथ राग-पूर्वक किया हुआ धर्मानुष्ठान ही सदनुष्ठान कहलाता है। (3) विघ्नाभाव - जो अनुष्ठान अतिशय प्रयत्नपूर्वक और बहुत ही प्रीति पूर्वक किया गया हो वैसा विवेकपूर्वक किया गया अनुष्ठान में स्वयमेव शुभभाव प्रगट होते है, तथा शुभ भावों से पूर्वबद्ध पापकर्मों का नाश होता है तथा पापकर्मों का नाश होने से जो विघ्न आनेवाले थे अथवा संभव थे वे सभी दूर हो जाते है। (4) सम्पदागम - धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति अतिशय रागपूर्वक किये गये अनुष्ठान से जो शुभभाव प्रगट होते है उससे जिस प्रकार पूर्वबद्ध पापकर्मों का नाश होता है तथा पापजन्य विघ्न नहीं आते है। उसी प्रकार शुभ भावों से उत्कृष्ट पुण्यबंध होता है और पुण्यबल से संपत्ति की प्राप्ति होती है। सम्प्रत्ति दो प्रकार की होती है - बाह्य और आभ्यंतर / अनुष्ठान के आचरण के समय सेवित शुभयोग और प्रशस्त रागादि से बंधे हुए द्रव्य पुण्य से बाह्यलक्ष्मी रूप सम्पत्ति मिलती है, और सांसारिक भावों का राग घटने रूप मोहनीय कर्म के क्षयोपशम स्वरूप भावपुण्य से भवभय, पापभय, करुणा, विनय, दाक्षिण्यता और उदारता आदि गुणों की प्राप्ति रूप अभ्यंतर संपत्ति मिलती है। (5) जिज्ञासा - अनुष्ठान करने की विधि तथा उसके द्वारा प्राप्त फलों को जानने की जो तमन्ना वह जिज्ञासा कहलाती है। जिज्ञासा के बिना ज्ञान का लाभ नहीं होता है और फल-प्राप्ति के बिना अनुष्ठानों में उपादेयता बुद्धि नहीं आती है। उपादेयता बुद्धि के बिना आदरभाव प्रगट नहीं होता है। आदरभाव बिना अनुष्ठान में राग नहीं होता है। अतः सभी भावों की प्राप्ति का मूलकारण जिज्ञासा है। (6) तज्ज्ञसेवा - इष्टपूर्तादि जो-जो धर्मानुष्ठान करना हो और उसकी विधि जानना हो तो उनकी विधि के ज्ञाता पुरुषों का समागम तथा उनकी सेवा इस कार्य में अतिशय आवश्यक है कारण कि ज्ञाता की सेवा करने से ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होगा। जिससे बोध प्रगट होगा। बोध होगा तभी विधि का ज्ञान तथा अनुष्ठान के प्रति आदरबुद्धि-उपादेयबुद्धि और राग प्रगट होता है। उन धर्मानुष्ठान के ज्ञाता महात्माओं की सेवा अंतःस्तल में हो तभी वह सदनुष्ठान बनता है। (7) उन ज्ञानियों का अनुग्रह - अनुष्ठानों का ज्ञान जिनको हो उनकी कृपादृष्टि भी जरुरी है। कारण कि | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII TA षष्ठम् अध्याय 411