________________ स्वयं के ये उद्गार हमें मिलते हैं - 'युज्यते इति योग।' 'योजनाद् योग।' 'जोयणाओ जोगो' / अर्थात् एक दूसरे का परस्पर संयुक्त होना ही योग है। यहाँ साध्य मोक्ष है और उसका साधक आत्मा है। जीवात्मा कर्म वासनाओं से बंधा हुआ है, अध्यात्म साधना द्वारा वहाँ से मुक्त होकर मोक्ष के साथ जुड़ना वही योग है। (2) योग की परिभाषा - योगविद्या एक ऐसी विद्या है जिसको प्रायः सभी दर्शनों ने सभी धर्मों ने स्वीकारी है / यह एक ऐसी आध्यात्मिक साधना है जिसको कोई भी व्यक्ति जात-पात-वर्ण या संप्रदाय के भेदभाव बिना मान्य करता है। क्योंकि भारतीय संस्कृति के जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है। अतः मोक्षमार्ग के लिए अनिवार्य साधन यह योग है। जिस प्रकार शास्त्र में - 1. रोग 2. रोग का कारण 3. आरोग्य 4. आरोग्य का कारण इस प्रकार चतुर्वृह में रोग का उपचार करने में आता है, उसी प्रकार योगशास्त्र में (योग दर्शन के ऊपर महर्षि व्यास के भाष्य में) भी चतुर्वृह का उल्लेख मिलता है। 1. संसार 2. संसार का कारण 3. मोक्ष 4. मोक्ष का कारण। चिकित्सा शास्त्र के समान ही योग भी आध्यात्मिक साधना के लिए चार बातों को स्वीकार करता है। 1. आध्यात्मिक दुःख 2. इसका कारण (अज्ञान) 3. अज्ञान को दूर करने के लिए सम्यग्ज्ञान और 4. पूर्णता की प्राप्ति (मुक्ति) इस प्रकार सम्पूर्ण आध्यात्मिक मान्यताएँ प्रस्तुत चार सिद्धांतों को स्वीकारते हैं, चाहे फिर भिन्न-भिन्न परंपरा और अलग-अलग संस्कारों के लिए नामभेद में भिन्नता हो सकती है। ___ योग साधना में अनेक प्रकार के आचार-ध्यान और तप का समावेश करने में आया है। लेकिन इन सभी का मूलभूत लक्ष्य तो आत्मा का पूर्ण विकास करना ही है। आत्म विकास में मनोविकारों के स्रोतों का मूल से उच्छेद करना आवश्यक है, और वह योग से ही सुसाध्य है। योग सभी दर्शनों को मान्य होने से सभी दर्शनकारों ने योग की परिभाषा अपनी-अपनी मान्यतानुसार दी आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA षष्ठम् अध्याय | 390