________________ जानना चाहिए।२६२ यह अनादि सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा से है - जब रागादि परिणामों का आगमन होता है तब कर्म का बंध होता है वह कर्म की सादि कहलाती है। लेकिन जब कर्म का बंध हुआ तब भी उसके पास पूर्वबद्ध कर्म तो अवस्थित है, वह कर्म जब बांधा होगा तब भी उस कर्म के पहले पूर्वबद्ध कर्म तो होगा ही इस प्रकार बीजांकुर न्याय से एक कर्म दूसरे कर्म का कारण बनता है। इस प्रकार आत्मा और कर्म का संबंध अनादि मानना ही न्यायपूर्वक है।२६३ इसी बात को आचार्य हरिभद्रसूरि दृष्टांत के द्वारा दृढ करते है - सव्वं कयगं कम्मं ण यादिमंतं पवाहरुवेण। अणुभूयवतमाणातीतद्धासमय मो णातं // 264 अणुभूयवतमाणे सव्वो वेसो पवाहओऽणादी। जह तह कम्मं णेयं कयकत्तं वत्तमाणसमं // 265 जैसे अनुभव किया है वर्तमान काल का जिसने ऐसा सम्पूर्ण अतीत काल प्रवाह से अनादि है वैसे ही कर्म व्यक्ति रूप में कृतक (कार्यरुप) होने पर भी प्रवाह से अनादि है। अर्थात जितना अतीत काल गया है वह सभी अतीत काल एक बार अवश्य वर्तमान अवस्था को प्राप्त कर चुका है। उदाहरण के रूप में जैसे कि अभी ई.सं. 2008 चल रहा है। उसके पूर्व में 2006, 2005, 2004, 2003, 2002 आदि वर्ष अभी भूतकाल कहे जाते हैं। परंतु उन वर्षों का जब प्रारंभ हुआ था तब तो वे भी वर्तमान ही थे। उसके पश्चात् भूतकाल बने हैं, अतः वर्तमान ही थे। उसकी सादि है फिर भी सम्पूर्ण भूतकाल अनादि है कारण कि समय के बिना यह लोक कभी भी संभवित नहीं है। अर्थात् बीता हुआ अतीत काल विवक्षित वर्ष के वर्तमान काल में सादि होने पर भी प्रवाह से अनादि है। उसी प्रकार कर्म भी विवक्षित कर्म के आश्रयी सादि होने पर भी प्रवाह से अनादि है। इसी को आचार्य हरिभद्रसूरि दार्शनिकता से सिद्ध करते है जैसे जीव और कर्म पुद्गलों का संयोग, तथा बंध का सम्बन्ध पूर्वोक्त योग्यता से प्रवाह से अनादिकालीन है वैसे ही सांत अर्थात् अंतवाला भी है जो ऐसा स्वीकार नहीं करे तो प्रथम जीव कमलपत्र के समान शुद्ध होना चाहिए और पश्चात् उसको कर्म का सम्बन्ध हुआ वैसा मानना पड़ेगा और वैसा मानने पर पूर्व जो कहा गया (अनादि) उसके साथ विरोध आयेगा। अर्थात् जीव के साथ कर्मों के बंधन को आदिकालीन माने तो वह कार्य के कारण भूत योग्यता में भी आदिता आयेगी। उससे कर्मबंध को भी आदि मानना पड़ेगा। उससे तो मुक्तात्मा का अनंतत्व नहीं रहेगा। उस कारण से सभी दर्शनकारों ने योग्यता को अनादि रूप में माना है। तथा योग्यता को आदि माने तो निरंजन-परमात्मा सिद्ध को भी कदाचित् योग्यता आते ही कर्मबंध हो सकते है और वैसा स्वीकारे तो धर्म-क्रिया, देव-गुरु पूजा आदि क्रियाओं पर विश्वास ही नहीं रहेगा। उसी से जीव के साथ अनादि काल से प्रवाह पूर्वक आनेवाली योग्यता के द्वारा कर्म संयोग कर्मबंध कर्म भोक्तृत्व आदि प्रवाह से अनादि काल का ही सिद्ध होता है। जिनेश्वर परमात्मा के वचन प्रमाणिक होने से और उसमें | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIII पचम अध्याय | 367