________________ के द्वारा अमूर्त ऐसे आकाश को उपघात या अनुग्रह नहीं होता है। यह जो दृष्टांत दिया है वह बराबर है क्योंकि आकाश चैतन्य रहित निर्जीव द्रव्य है यही सच्चा कारण है। जो चेतन होता है उसे उपघात या अनुग्रह होता है। निर्जीव में ज्ञानसंज्ञा का ही अभाव होता है। अतः आकाश में उपघात अनुग्रह नहीं होता है परंतु आकाश अमूर्त होने से उपघात अनुग्रह नहीं होता है। यह मानने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए विज्ञान के समान अमूर्त आत्मा में अनुग्रह और उपघात होता है। यही बात धर्मसंग्रहणी टीका२५४ तथा योगशतक की टीका२५५ में है। अथवा संसारी आत्मा एकांत से सर्वथा अमूर्त नहीं है अनादि कर्म-प्रवाह के परिणाम को प्राप्त किया हुआ है। आत्मा अग्नि और लोहपिंड के संबंध के सदृश कर्म के साथ मिला हुआ है और कर्म मूर्त्तिमान होने से आत्मा भी उससे कथंचित् अनन्य होने से अमूर्त होने पर भी कथंचित् मूर्त है, उससे आत्मा अमूर्त होने से अनुग्रह या उपघात नहीं होता है ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए। अहवा णेगंतोऽयं संसारी सव्वहा अमत्तोत्ति। जमणादिकम्मसंतति परिणामावन्नरुवो सो॥२५६ उपरोक्त सम्पूर्ण तथ्य 'विशेषावश्यक - भाष्य'२५७ में भी स्पष्ट किया है। (8) कर्तृभाव कर्मभाव परस्पर सापेक्ष - कर्ता और कर्म परस्पर सापेक्ष भाव से रहते है जैसे कि कार्यरूप कर्म प्रवाह से अनादि है उसी से शुभाशुभ अध्यवसाय रूप कारण के संबंध से जीव भी कर्म के कर्ता रूप में सिद्ध होता है। . जीव अपने शुभाशुभ अध्यवसाय रूप परिणाम विशेष से ज्ञानावरण आदि कर्मों में अनेक प्रकार का ज्ञानावरणकत्व आदि सामर्थ्य उत्पन्न करता है। कर्म अपनी उपस्थिति मात्र से फल नहीं देता है लेकिन निश्चित प्रकार के सामर्थ्य से युक्त होने पर ही वैसा-वैसा नियत फल देता है। उसी से कर्म अपनी सत्तामात्र से फल देने वाले नहीं होते परंतु कुछ उसी प्रकार निश्चल स्वभाव वाले होकर अमुक ही फल देते है, कर्मों का यह प्रतिनियत स्वभाव अपना संबंधी जीव के शुभाशुभ अध्यवसाय पर अवलंबित है। इसीसे सिद्ध होता है कि परिणाम विशेषरूप करण के योग से जीव ही कर्म में फलसंबंधी नियत स्वभाव उत्पन्न करनेवाला होने से कर्ता है तथा जीव भी कर्म में प्रतिनियत स्वभाव का अपादान करने में हेतु नहीं बने तो अवश्य उस कर्म का प्रतिनियत स्वभाव असंभवित बनेगा कारण कि परिणामि और नियत कारण के अभाव में कार्य कभी उत्पन्न नहीं होता है। ___ इस प्रकार कर्मों के प्रतिनियत स्वभाव की अपेक्षा से जीव कर्मों का निमित्तकारण रूप में युक्ति से सिद्ध होता है उसी से जीव कर्मों का निमित्तकारण रूप में युक्ति से सिद्ध होता है / उसी से जीव कर्मों का कर्ता है। सर्वज्ञ के उपदेश से भी जीव कर्ता रूप में सिद्ध है।२५८ इस प्रकार कर्ता और कर्म का परस्पर सापेक्ष भाव हो तभी परिणाम्य परिणामिक बध्य और बंधक भाव घटित हो सकता है। जैसे कि 'योगशतक की टीका में आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस प्रकार स्पष्ट उल्लेख किया है कि यह आत्मा समय समय कर्म परमाणु के स्कंधो को बांधता है और उसमें राग द्वेष और मोह लाकर प्रकृति स्थिति रस और प्रदेश रूप में परिस्थिति का निर्माण करता है। और | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII TA पंचम अध्याय | 365