________________ उपपात जन्म वाले अर्थात् नारक और देव, तद्भव मोक्षगामी तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और असंख्य वर्ष वाले देवकुरु, उतरकुरु में उत्पन्न मनुष्य और तिर्यंच अनपवर्तनीय आयु वाले होते है, इनके अतिरिक्त शेष मनुष्य, तिर्यंच अपवर्त्य वाले है।१४६ आयुष्य कर्म चार प्रकार का जानना चाहिए। आउं च एत्थ कम्मं चउव्विहं नवरि होति नायव्वं / नारयतिरियनरामरगति भेद विभागतो जाण // 147 यह आयुष्य कर्म चार प्रकार का है - 1. नारक, 2. तिर्यंच, 3. मनुष्य, 4. देव / 1. नारक - जिसके उदय से उर्ध्वगमन स्वभाव वाले जीव को तीव्र शीत उष्ण आदि वाले नरकों (नरकगति) में जीवन बिताना पड़ता है उसे नरक आयु कहते है। 2. तिर्यंच - जिसके उदय से तिर्यंच गति का जीवन व्यतीत करना पड़ता है उसे तिर्यंच आयु कहते है। 3. मनुष्य आयु - जिसके उदय से जीव मनुष्य पर्याय में जीवन बिताता है, वह मनुष्य आयु है। 4. देवायु - जिसके उदय से देव पर्याय में अवस्थान होता है उसे देवायु कहते है।१४८ (6) नाम कर्म - जिस कर्म से जीव गति आदि पर्यायों का अनुभवन करने के लिए बाध्य हो, जिस कर्म की भिन्नता से जीव में जीव आदि का भेद उत्पन्न हो, देहादि की भिन्नता का कारण हो उसे नाम कर्म कहते है। नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों की संख्या संक्षेप व विस्तार दृष्टि से शास्त्रों में बयालीस, सडसठ, तिरानवे और एक सौ तीन बतायी है।१४९ इसमें न तो किसी प्रकृति का समावेश है किन्तु संख्या भिन्नता का कारण संक्षेप व विस्तार की अपेक्षा दृष्टि है। वह इस प्रकार संक्षेप दृष्टि से नामकर्म के बयालीस अवान्तर भेद माने गये हैं जिसका कारण यह है कि नामकर्म की उत्तरकर्म प्रकृतियों की संख्या को संक्षेप में समझने के लिए सर्वप्रथम पिंड और अपिंड इन दो वर्गों में विभाजित करके पिंड प्रकृतियाँ चौदह, प्रत्येक प्रकृतियाँ आठ, त्रस दशक प्रकृतियाँ दस और स्थावर दशक प्रकृतियाँ दस है। गति-जाति शरीर आदि चौदह मूल पिण्ड प्रकृतियाँ। इस प्रकार (8+10+10+14=42) बयालीस संक्षेप दृष्टि से नामकर्म की प्रकृतियाँ है। नामकर्म के सडसठ भेद आपेक्षिक दृष्टि से माने गये है। आठ प्रत्येक प्रकृति दस (त्रस दशक) दस (स्थावर एक) के साथ चौदह पिंड प्रकृतियों में से बंधन और संघात नामकर्म के पाँच अवान्तर भेदों की अभेद विवक्षा से शरीर नामकर्म के पाँच भेदों से गर्भित कर लिया जाता है, क्योंकि बंधन और संघात नामकर्म अपनेअपने नामकर्म वाले शरीर के साथ बंधती है। शरीर के साथ इनका अविनाभाव संबंध है। तथा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श - इन चार पिंड प्रकृतियों के क्रमशः पाँच, दो, पाँच, आठ कुल बीस भेदों में से एक समय में एक ही प्रकृति का बन्ध व उदय होने से बन्ध और उदय अवस्था में अभेद विवक्षा से उन उनकी मूल पिंड प्रकृतियों में समाविष्ट करके मुख्य चार भेद लिये जाते है। मूल पिंड प्रकृति 14 के उत्तर पैंसठ भेद होते है। उसमें से बंधन संघातन के पाँच पाँच कम तथा वर्णादि के 16 कम करने पर (65-26-39) (39+28-67) सडसठ नामकर्म के भेद होते है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIMAN 4 पंचम अध्याय | 350