________________ .. उक्त भेदों के सिवाय भिन्न-भिन्न दृष्टियों, प्रकारों और अपेक्षाओं से मिथ्यात्व के और भी भेद शास्त्रों में कथित है। (2) चारित्र मोहनीय - आत्मा को अपने स्वभाव की प्राप्ति या उसमें रमण करने को चारित्र कहते है, अथवा पाप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते है। यह आत्मा का गुण है। आत्मा के इस चारित्र गुण को घात करनेवाले कर्म को चारित्र मोहनीय कहते है / 120 चारित्र मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद है। (1) कषाय वेदनीय (2) नोकषाय वेदनीय। इनके यथाक्रम से सोलह और नौ भेद जानना। दुविहं चरित्तमोहं कषाय तह णोकसायवेयणियं / सोलसनवभेदं पुण जह संखं तह मुणेयव्वं // 121 (1) कषाय वेदनीय - जो आत्मा के गुणों के स्वाभाविक रूप को नष्ट करे अथवा कष यानि जन्ममरण रूप संसार और उसकी आय प्राप्ति हो, उसे कषाय कहते है।१२२ अथवा क्रोध, मान, माया, लोभ रूप आत्मा के परिणाम सम्यक्त्व देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यात चारित्र का घात करते है, वे कषाय कहलाते है।१२३ अथवा जिन क्रोधादि रूप परिणामों के द्वारा आत्मा के साथ कर्म संश्लिष्ट होते है, चिपकते है उन क्रोधादि परिणामों को कषाय' कहते है और जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदन करता है वह कषाय वेदनीय कर्म आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति' की टीका में कषाय वेदनीय की व्याख्या इस प्रकार की - 'तत्र / क्रोधादि कषायरूपेण यद्वेद्यते तत्कषायवेदनीयम्।' जिसका वेदन क्रोधादि कषाय रूप से हुआ करता है उसे कषाय वेदनीय कहते है। कषाय के मूल चार भेद है। क्रोध, मान, माया और लोभ / इनमें से प्रत्येक अनन्तानुवंधि, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के भेद से चार-चार प्रकार का है।१२४ इन सोलह कषाय को प्रज्ञापना१२५ एवं कर्मप्रकृति१२६ में भी बताया है। (1) अनंतानुबंधि - जिस कषाय के उदय से जीव को अनंतकाल संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है * 'तथा जो जीव के सम्यक्त्व गुण का घात करता है। उसे अनंतानुबंधी कहते है अथवा अनंत संसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन को अनंत कहते है तथा जो कषाय उसकी अनुबंधी है उन्हें अनंतानुबंधी कहते है।१२८ यद्यपि अनंतानुबंधी कषाय चारित्र मोहनीय की प्रकृति है, लेकिन उनको चारित्र के साथ सम्यक्त्व का घातक भी इसलिए माना जाता है कि मिथ्यात्व के बन्ध उदय और सत्ता के साथ अनंतानुबंधी कषाय का अविनाभावी सम्बन्ध है। इसलिए दो में से एक की विवक्षा करने पर दूसरे की विवक्षा आ ही जाती है।१२९ मिथ्यात्व के साथ उदय होनेवाला कषाय सम्यक्त्व का घात करता है। अतः अनंतानुबंधी के द्वारा सम्यक्त्व और संयम का घात होता है।९३० अनंतानुबंधी क्रोध आदि के परिणामों को बताने के लिए शास्त्रों में प्रतीक स्वरूप क्रमशः पर्वतभेद, पत्थर वंशमूल और कृमिराग की उपमा दी गई है। अर्थात् जैसे पर्वत के फटने से आयी दरार कभी नहीं जुडती है, [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / पंचम अध्याय | 345