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________________ मोहनीय के दो भेद है - (1) दर्शन मोहनीय और (2) चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय आत्मा के सम्यक्त्व शुद्ध श्रद्धा को विकृत बना देता है। जैसे शराबी बेहोश होकर विवेकहीन बन जाता है, वैसे ही दर्शन मोहनीय के उदय से जीव पर पदार्थों को अपना समझने लगता है। चारित्र गुण को आवृत्त करता है। जिससे वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि साधु व श्रावक सम्बन्धी व्रतों का पालन नहीं कर पाता। आयुष्य कर्म - जिस कर्म के अस्तित्व से लोक व्यवहार में जीवित और क्षय होने पर ‘मर गया' कहलाता है। यद् भावाभावयोः जीवितमरणं तदायुः।७७ अर्थात् इस कर्म के सद्भाव से प्राणी जीता है और क्षय हो जाने पर मर जाता है। अथवा जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में से किसी एक पर्याय विशेष में समय विशेष तक रोक दिया जाता है, उसे आयु कर्म कहते है। इसका स्वभाव बेडी के समान है - 'आउ हडिसरिसं।'७८ जैसे अपराधी को दण्ड देने पर अमुक समय तक कारागार में डाल दिया जाता है। अपराधी तो चाहता है कि मैं जैल से मुक्त हो जाउं, लेकिन इच्छा रखते हुए वह अवधि पूरी हुए बिना जैल से छूट नहीं सकता है। वैसे ही आयुष्यकर्म जब तक रहता है तब तक दुःखी से भी दुःखी जीव चाहते हुए भी प्राप्त शरीर से वहाँ तक छूट नहीं सकता है तथा सुखी जीव इच्छा रखते हुए भी आयु के पूर्ण होने पर एक क्षण के लिए भी जिन्दा नहीं रख सकता स्वयं महावीर परमात्मा को निर्वाण के समय इन्द्र महाराज ने आकर विनंती की थी कि हे परम तारक परमात्मा ! आप तो मोक्ष में जा रहे है, पर आपके सन्तानिकों को दो हजार वर्ष तक पीडा होगी। अब दो घड़ी यह भस्मग्रह शेष रहा है। इसलिए दो घड़ी तक आपकी आयु बढ़ा ले तो भस्मग्रह उतर जाने के कारण, पश्चात् के आपके संतानिकों अर्थात् साधु-साध्वी को शाता उत्पन्न होगी। यह सुनकर भगवान ने कहा कि हे इन्द्र ! यह बात तीन काल में नहीं हो सकती। तुम दो घड़ी आयु बढ़ाने के लिए कह रहे हो पर मुझ से एक समय मात्र भी आयु बढ़ाई नहीं जा सकती / टूटी आयु किसी से भी बढ़ाई नहीं जा सकती है।७९ आयुष्य कर्म चार प्रकार का है - नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु एवं देवायु / इस कर्म से जीव को अक्षय स्थिति प्राप्त नहीं होती है। (6) नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि कहलाते है। अथवा जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्यायें प्राप्त करता है। अथवा जिस कर्म के उदय से जीव गति आदि नाना पर्यायों का अनुभव करता है। अथवा उसके शरीर आदि बनते है, उसे नाम कर्म कहते है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI पंचम अध्याय | 3380
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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