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________________ उनके नाम उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार मिलते है। नाणस्सावरणिज दंसणावरणं तहा। वेयणिजं तहा मोहं अडकम्मं तहेव य॥ नामकम्मं च गोयं च अन्तराय तहेवय। एवमयाइं कम्माइं अटेव उ समासओ॥५४ आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणी में इन्हीं नामों का उल्लेख किया है। पढमं नाणावरणं बितियं पुण होइ दंसणावरणं। ततियं च वेयणिजं तहा चउत्थंच मोहणियं / / आउय नाम गोत्तं चरिमं पुण अंतराइयं होइ। मूलप्पगडीउ एया उत्तरपगडी अतो वुच्छ॥५५ (1) ज्ञानावरण (2) दर्शनावरण (3) वेदनीय (4) मोहनीय (5) आयु (6) नाम (7) गोत्र और (8) अंतराय - ये आठ मूल कर्म है। इन आठ कर्मों का वर्णन श्रीभगवती,५६ स्थानांग,५७ प्रज्ञापना,५८ पंचसंग्रह,५९ प्रथम कर्मग्रंथ,६° तत्त्वार्थ,६१ नवतत्त्व,६२ श्रावक-प्रज्ञप्ति,६२ प्रशमरति४ आदि ग्रंथों में भी है। ___इन में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय - ये चार कर्म जीव के ज्ञान दर्शन आदि अनुजीवी स्वाभाविक गुणों को आवृत्त करनेवाले होने से आत्म स्वभाव को साक्षात् प्रभावित करते है। उस पर सीधा असर डालते है। इससे आत्म गुणों का विकास सीधा अवरुद्ध हो जाता है। जबकि वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार कर्म यद्यपि साक्षात् आत्म स्वरूप को अवरूद्ध नहीं करते। ये प्रतिजीवी गुणों को प्रभावित करते है किन्तु आत्मा को पौद्गलिक सम्बन्ध रखने में निमित्त बनते है। अमूर्त होने पर भी आत्मा मूर्त दिखती है एवं शरीर कृत सुख-दुःख का वेदन करती है। लेकिन इन चार कर्मों की क्षमता मर्यादित है। जब आत्मा के अनुजीवी गुणों को आवृत्त करनेवाले कर्मों का सम्पूर्ण रूप से नाश हो जाता है तब सशरीर होते हुए भी यह जीव केंवलज्ञानी, सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा, जीवमुक्त होकर समस्त चराचर पदार्थों का ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है और इस अवस्था में शरीर आदि रहने पर भी आत्म-निर्मलता आदि में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता है तथा उन प्रतिजीवी गुण घातक कर्मों से जन्य शरीर आदि का क्षय होने पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर इस जन्म मरण रूप संसार का सदा के लिए अन्त कर देता है। उसे अपुनर्भव मोक्ष दशा प्राप्त हो जाती है। अनुजीवी गुणों को आवृत्त करनेवाले कर्मों को घाती एवं प्रतिजीवी गुणों को आच्छादित करनेवाले कर्मों को अघाती इस प्रकार आठ कर्मों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। ज्ञानावरण आदि चारों कर्मों की घाती संज्ञा सार्थक है। इनका सीधा प्रभाव जीव के स्वाभाविक मूल गुणों-ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और वीर्य पर पड़ता है। ये इन गुणों का घात करते है, जैसे कि ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञान गुण को, दर्शनावरण दर्शन गुण को, मोहनीय सम्यक्त्व गुण को और अन्तराय अनन्त वीर्य को आवृत्त करते | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIMINA पंचम अध्याय | 3350
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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