________________ में आता है। लेकिन इन दोनों में अन्तर यह है कि एक जन्म में संचित कर्म को तो कर्माशय और अनेक जन्मों के कर्म संस्कारों की परम्परा को वासना कहते है। अतः वासना की परम्परा के अनादि होने से उसका विपाक असंख्य जन्म आयु और भोगों को माना गया है। न्यायवार्तिककार ने कर्म विपाक को अनियत बताया है। कर्म का फल इसी लोक में या परलोक में या जात्यन्तर प्राप्त हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। कर्म के अन्य सहकारी कारणों का सन्निधान न हो तथा सन्निहित कारणो में भी कोई प्रतिबन्धक न हो तब कर्म अपना फल प्रदान करता है। परन्तु यह नियम कब पूरा हो इसका निर्णय होना कठिन है। कर्म की गति दुर्विज्ञेय है। अतः मनुष्य उस प्रक्रिया का पार नहीं पा सकता।८ बौद्ध दर्शन में कर्म के भेद कृत्य, पाकदान, पापकाल और पाकस्थान - इन चार दृष्टिपाक से किये गये हैं। कृत्य की दृष्टि से चार भेदों के नाम है - जनक, उत्थंभक, उपपीडक और उपघातक / जनक कर्म तो नवीन कर्म को उत्पन्न करके अपना विपाक प्रदान करता है। उत्थंभक कर्म अपना विपाक तो नहीं दोता, परंतु दूसरों के विपाक में अनुकूल बन जाता है। उपपीडक कर्म दूसरे कर्मों के विपाक में बाधक बन जाता है और उपघातक कर्म अन्य कर्मों के विपाक का घात करके अपना ही विपाक प्रदर्शित करता है। ____ पाकदान की अपेक्षा से बौद्ध दर्शन में किये गये कर्म के चार भेद इस प्रकार है - गुरूक बहुल अथवा अचिरण, आसन और अभ्यस्त। इन में से गुरूक और बहुल ये दोनों कर्म दूसरे के विपाक को रोककर पहले अपना फल प्रदान करते हैं। आसन्न अर्थात् मरणकाल में किया गया कर्म / यह कर्म भी पूर्वकृत कर्मों की अपेक्षा अपना फल पहले ही दे देता है। पूर्व में किये गये कर्म चाहे जैसे हो, परन्तु मरण समय में किये गये कर्म के आधार से नया जन्म शीघ्र प्राप्त होता है और उक्त तीन के अभाव में ही अभ्यस्त कर्म अपना फल देते हैं। पाककाल की दृष्टि से किये गये कर्म के चार भेदों के नाम इस प्रकार है - दृष्ट धर्म वेदनीय, उपपज्ज वेदनीय. अहोकर्म और अपरापर वेदनीय / 50 इन भेदों में से दृष्ट धर्म वेदनीय का विपाक वर्तमान जन्म में होता है तथा उपपज्ज वेदनीय कर्म के फल की प्राप्ति नवीन जन्म धारण करने पर होती है। जिस कर्म का विपाक ही न हो, उसे अहोकर्म कहते है और अनेक भवों में जिसका विपाक हो वह अपरापर वेदनीय कर्म कहलाता है। इनकी तुलना योग दर्शन में बताये गये दृष्ट जन्म वेदनीय आदि भेदों के साथ की जा सकती है। ___ पाक स्थान की दृष्टि से अकुशल, कामावचर कुशल, रूपावचर कुशल और अरूपावचर कुशल ये चार भेद कर्म के होते है। अकुशल कर्म का विपाक नरक में, कामावचर कुशल कर्म का सुगति में, रूपावचर कुशल कर्म का रूपी ब्रह्मलोक में और अरूपावचर कुशल कर्म का अरूपलोक में विपाक होता है। इस प्रकार इतर दर्शनों में भी विपाक और विपाककाल की दृष्टि से कर्म के कुछ भेद बताये गये है। लेकिन जैन ग्रन्थों में कर्म के भेद प्रभेदों का व्यवस्थित वर्गीकरण एक ही दृष्टि से नहीं अपितु विविध अपेक्षाओं, स्थितियों आदि को लक्ष्य में रखकर किया गया है। वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जैन दर्शन में भी विपाकों को दृष्टि में रखकर कर्मों के भेद गिनाये है / लेकिन विपाक के होने, न होने, अमुक समय में होने आदि की दृष्टि से जो भेद [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII अपंचम अध्याय | 333]