SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में कटुक रस अधिक होता है तो कुछ में कम / कुछ में कटुक रस अधिक होता है तो कुछ कम या मध्यम होता है। वैसे ही कुछ कर्म दलिकों में शुभ रस अधिक, कुछ में मध्यम और कुछ में अल्प होता है। इसी प्रकार कुछ दलिकों में अशुभ रस अधिक, कुछ में मध्यम और कुछ में कम होता है। इस कर्म दलिकों को शुभाशुभ रसों में जो तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम मन्द, मन्दतर, मन्दतम फल देने की शक्ति होती है। उस शक्ति का कर्म पुद्गलों में बन्ध होना वह अनुभाग बन्ध है। उन औषधि मिश्रित लड्डुओं में से कुछ का परिमाण दो तोले का, कुछ का पाँच तोले का और कुछ का दस पन्द्रह तोले का होता है। इसी प्रकार प्रदेश बन्ध में किन्हीं कर्म स्कन्धों में परमाणु की संख्या अधिक और किन्ही में कम होती है। इस तरह भिन्न-भिन्न परमाणु संख्यायुक्त कर्म दलिकों का आत्मा के साथ बंधना प्रदेश बन्ध है।३८ कर्मबंध की पद्धति मकान बांधते समय सीमेंट रेती में पानी डालकर जो मिश्रण किया जाता है, उसमें भी मिश्रण की प्रक्रिया पदार्थों पर आधार है। पानी यदि बिलकुल कम होगा तो मिश्रण बराबर नहीं होगा। उसी प्रकार आत्मा के साथ कर्म बंध में भी कषायादि की मात्रा आधारभूत प्रमाण है। सीमेंट रेती में मिश्रण पानी के आधार पर होता है वैसी ही आत्मा के साथ जड़ कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का मिश्रण कषाय के आधार पर होता है। जिस प्रकार पानी कम ज्यादा हो तो मिश्रण में फरक पडता है। उसी तरह कषायों में तीव्रता या मंदता आदि के कारण कर्म के बंध में भी शैथिल्य या दृढ़ता आती है। अतः कर्म बन्ध की पद्धति के चार प्रकार है - (1) स्पृष्ट (2) बद्ध (3) निधत्त (4) निकाचित। (1) स्पृष्ट - सूचि समूह के परस्पर बन्ध के समान गुरु कर्मों का जीव प्रदेश के साथ बन्धन होता है। वह स्पृष्ट बंध है। अल्प कषाय आदि के कारण से बंधे कर्म जो आत्म के साथ स्पर्शमात्र सम्बन्ध से चिपक कर रहे हैं उन्हें सामान्य पश्चाताप मात्र से ही दूर किये जा सकते है। धागे में हल्की सी गांठ जो शिथिल ही लगाई गई है वह आसानी से खुल जाती है, वैसा कर्मबंध स्पर्श मात्र कहलाता है। जैसे प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यान में विचारधारा बिगड़ने से जो कर्मबंध हुआ वह शिथिल स्पर्श मात्र ही था। अतः 2 घडी में तो कर्मक्षय भी हो गया। (2) बद्ध - पैक बण्डल में बन्धी हुई सूईयाँ के समान गुरु कर्मों का जीव प्रदेशों के साथ बन्धन होता है। उसे बद्धबन्ध कहते है। यह विशेष प्रयत्न अर्थात् प्रायश्चित आदि द्वारा क्षय होता है, जैसे धागे में गांठ खींचकर लगाई हो तो खोलने में कठिनाई होती है, वैसे ही यह गाढ बन्ध होता है। जैसे अईमुत्ता मुनि को प्रायश्चित्त करते हुए कर्मों का क्षय हो गया। स्वेच्छा से कर्म करता है। (3) निधत्त बन्ध - सूइयाँ कई वर्षों से चिपकी हुई पडी है, जिसमें पानी या जंग लग जाने से एक दूसरे से ज्यादा चिपक जाने से आसानी से अलग नहीं पडती / रेशमी धागे में लगाई गई पक्की गांठ खोलना बहुत मुश्किल है। वैसे ही आत्मा के साथ कर्म का बंध तीव्र कषाय से ज्यादा मजबूत होता है, जो आसानी से नहीं छूटता / यह निधत्तबन्ध तपश्चर्या आदि से बड़ी कठिनाई से क्षय होता है। जैसे अर्जुनमाली। इच्छा से आनंद पूर्वक कर्म करता है। [ आचार्य हरिभदसरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII VA पंचम अध्याय | 330]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy