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________________ त्याग करके यह प्रतिज्ञा करता हुँ हे भगवान् ! मृषावाद विरमणरूप द्वितीय महाव्रत स्वीकार करके मैं पूर्वकृत मृषावाद रूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ आलोचना करता हूँ निन्दा करता हूँ गर्दा करता हूँ और अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा व्युत्सर्ग करता है / 232 आचार्य हरिभद्र ने पञ्चाशक में दूसरे महाव्रत का स्वरूप कुछ दूसरा बताया है। कोहाइपगारेहि एवं चिअ मोसविरमणं बीअं।२३३ क्रोध लोभ आदि कारणों से होने वाले सभी मृषावाद से सर्व सुप्रणिधान पूर्वक विरत होना दूसरा मूलगुण है। 'धर्मसंग्रहणी' में इस दूसरे महाव्रत के विषय को सुनकर कुछ लोग अपना मन्तव्य प्रगट करते हुए कहते है सर्वथा मृषावाद दोषरूप नहीं है कही पर गुण रूप होता है उसी के आक्षेप और परिहारों के द्वारा मृषावाद व्रत की उत्तमता प्रगट करते हुए कहते है। अन्ने उ मुसावाओ नियनिंदाकारणं न दोसाय। जह बंभघातगो ऽहं एमादि पभासयन्तस्स // 234 अन्य कहते है कि अपने निंदा में कारण बननेवाला मृषावाद दोषरूप नहीं है / जैसे कि मैं ब्राह्मण का घातक हूँ / ऐसा मृषा का भाषण करने वाले को मृषावाद दोष नहीं है। क्योंकि अविद्यमान दोषों को स्वीकारने तथा इन दोषों को जानकर दूसरों के द्वारा होने वाले आक्रोश को समभाव से सहन करने से संसार वृक्ष के बीजरूप तथा पूर्व में कभी नहीं जिता हुआ अहंकार पर विजय प्राप्त होती है अर्थात् अहंकार समाप्त होता है तथा इसने ब्रह्महत्या की है ऐसी ब्रह्महत्या कभी नहीं करनी चाहिए ऐसी भावना में कारण मृषावादी है। अर्थात् ऐसे वैराग्य का कारण स्वयं की निंदा वाला मृषावादी बनता है। लेकिन उपरोक्त प्रकार से अज्ञान और मोह से अविद्यमान दोषों को स्वीकार करने में स्वयं तो दोषों से दूषित बनता ही है साथ में आक्रोश करने वाले के भी कर्मबन्ध में निमित्त बनता है जिससे स्व और पर दोनों का अपकार सहन किया कहलाता है जो आक्रोश स्वयं ने उपस्थित नहीं किये हो। क्योंकि स्वयं ही आक्रोश के बीज को बोता है और फिर सामने से आने वाले क्लेशों को समभाव से सहन करता है तो वह सहनशीलता नहीं है। लेकिन स्वयं दूसरों को आक्रोश वचन के लिए प्रेरित न करे लेकिन अज्ञानी अज्ञानता के कारण आक्रोश वचन कहे, उसे समभाव पूर्वक सहन करे तो वह वास्तविक सहनशीलता है जिससे क्षमा गुण की पुष्टि होती है। आक्रोश आदि सहन करने से ब्रह्महत्या आदि पाप नाश होते है अत: आपत्ति आने पर ब्रह्महत्या करनी चाहिए क्योंकि तत्पश्चात् आक्रोश आदि सहन करने पर पाप नाश हो जायेंगे ऐसी बुद्धि होने में कारण वह मृषावादी ही बनेगा। __जो व्यक्ति शास्त्र में निषिद्ध मृषाभाषण को शास्त्र प्रतिनिषिद्ध रूप में देखता है तो वह मृषाभाषण वैराग्य का कारण बनता है। जैसे अरे अरे। धिक्कार हो मुझे कि मैंने शास्त्र में निषिद्ध भाषण किया है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII व चतुर्थ अध्याय 286
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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