________________ हिंसा भी यथोक्त विधि विशेषद्वारा किये गये संस्कार से संस्कारित होने से त्याज्य नहीं है तथा यज्ञ होम किये जाने वाले पशु देवत्व को प्राप्त करते है तथा वेद विहित हिंसा निंदनीय भी नहीं है, क्योंकि अश्वमेघादि यज्ञों को करने वाले यजमान भी पूजनीय होते है तथा साथ में यह भी तर्क किया कि जिस प्रकार आपको जिनायतन संबंधी हिंसा मान्य है उसी प्रकार वेदविहित हिंसा भी मान्य होनी चाहिए। आचार्य हरिभद्रसूरि एक क्रान्तिकारी बनकर दार्शनिक चिन्तन से सजोड़ बनकर उनका समाधान किया है। आचार्य श्री ने कहा कि आपने जिन दृष्टांतो को देकर वेदविहित हिंसा की पुष्टि की वह पारमार्थिक नहीं है क्योंकि जगत लोहे के गोले का विष का शक्त्यन्तर से युक्त भावान्तर के कारण पानी आदि में नहीं डूबता लेकिन वेद विधि से रहित की जाने वाली हिंसा में कोई विशिष्ट शक्तयन्तर से युक्त भावान्तर नहीं दिखता है / अत: वह त्याज्य ही है। वेदविहित पशुओं को देवत्व प्राप्त होता है इसमें भी कोई ग्राहक प्रमाण नहीं है क्योंकि देवत्व अतीन्द्रिय है। साथ ही वेदविहित हिंसा के बिना भी भाव आपत्ति का निस्तार हो सकता है लेकिन जिनायतन हिंसा के बिना आपत्ति का निस्तार शक्य नहीं / अतः बाह्यशुभ आलंबन रूप होने से मान्य है / जैसे कि - ‘साहुणिवासी तित्थगरठावणा आगमस्स परिवुड्डी एक्केकं भावावइनित्थरण गुणं तु भव्वाणं।' जिस गाँव में जिनायतन होता है वहाँ विहार करते हुए साधु भगवंत निवास करते है। तीर्थंकर की स्थापना होती है / साधुओं के सम्पर्क से सभी श्रावकों को सद्बोध की प्राप्ति होती है। ये एक एक वस्तु लघुकर्मी जीवों के लिए भाव आपत्ति का निस्तार करने वाली है। तथा अन्त में मोक्ष प्राप्त होता है।२२७ इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने प्रथम महाव्रत का स्वरूप धर्मसंग्रहणी में किया वैसा अन्यत्र सुलभ नहीं है अब उस व्रत का निर्दोष पालन करने के लिए आचार्य श्री ने पञ्चवस्तुक में अतिचार बताये है जिनको जानकर त्याग करने चाहिए। पढममी एगिदिअविगलिंदिपणिं दिआण जीवाणं। , संघट्टण परिआवणमोद्दवणाइणि अइआरो।।२२८ प्रथम व्रत में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय जीवों को संघट्टन, परितापन, उद्रापन आदि अतिचार है। संघट्ठन यानि स्पर्श करना। परितापन यानि पीड़ा पहुँचाना। उद्रापन अर्थात् अधिक शारीरिक पीडा पहुँचाना। __ आचारांग में यह भी बताया है कि सम्यग् आराधना कैसे हो सकती है ? इसके पाँच क्रम बताये है। 1. स्पर्शना 2. पालना 3. तीर्णता 4. कीर्तना और 5. अवस्थितता। स्पर्शना-अर्थात् सम्यक् श्रद्धा प्रतीतिपूर्वक महाव्रत ग्रहण करना, पालना-ग्रहण करने के बाद यथाशक्ति उसका पालन करना। तीर्णता - जिस महाव्रत को स्वीकार किये उनको जीवन के अन्तिम श्वास तक पालन करना चाहे बीच में कितनी ही नाधा विघ्न आ जाये लेकिन अपने निश्चय से पीछे नहीं हटना। कीर्तनः-स्वीकृत महाव्रत का महत्त्व समझकर उसकी प्रशंसा करना उसकी विशेषता दूसरों को भी समझाना। [ आचार्य हरिभद्रगरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII Vaa चतुर्थ अध्याय 284