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________________ स्त्रीभोग का पच्चक्खाण जानते है। अर्थात् कि वे स्त्री को परिग्रह रूप मानकर पाँचवे परिग्रह व्रत के साथ ही लेते है क्योंकि जहाँ स्त्री है वहा परिग्रह है। इसलिए बावीस तीर्थंकर के साधु के लिए चोथा मैथुन विरमणव्रत छोड़कर चार महाव्रत जानना। अथवा श्री आदिनाथ और श्री महावीर के तीर्थ में रात्रिभोजन विरमणव्रत मूल गुण में गिना जाता है। इस कारण से रात्रिभोजनविरमणव्रत के साथ गिनें, तो साधु के छह व्रत होते है और बावीस जिन के तीर्थ में तो रात्रिभोजन विरमणव्रत उत्तरगुण गुण में गिनते है इसलिए चार ही व्रत जानना२१९, अभिधान राजेन्द्र कोष में इस कथन की पुष्टि करने वाला प्रमाण मिलता है जैसे कि - पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मझिमगाण जिणाणं चाउज्जामो भवे धम्मो॥२२० ये पाँच महाव्रतरूप धर्म प्रथम एवं चरम तीर्थकर के समय एवं मध्यम के बावीस तीर्थकरों के काल में चार महाव्रतरूप धर्म होता है, क्योंकि मैथुनव्रत का परिग्रहव्रत में अन्तर्भाव होने के कारण। जिसका मुख्य कारण भी अभिधान राजेन्द्र कोष में बताया गया है। पुरिमाण दुव्विसोज्झे चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। मज्झिमगाण जिणाणं सुविसुज्झे सुअणुपालो अ॥२२१ श्री अदिनाथ के समय में लोग ऋजु और जड़ होते है उन्हें धर्म समझना बड़ा कठिन होता है। तथा श्री महावीर भगवान के समय में लोग वक्र और जड़ होते है। उन्हें धर्म का पालन करना बड़ा दुर्लभ होता है। और मध्य के बावीस तीर्थकरों के समय में सब लोग ऋजु और प्राज्ञ होते है। इस कारण उन्हें धर्म समझाना भी सुलभ होता है और धर्म पालन करना भी सरल होता है। इस प्रकार मनुष्य के परिणामों में भेद होने के कारण कल्प (आचार) में भेद हुआ है, लेकिन परमार्थ से कुछ भी भेद नहीं है। इसका विवेचन प्राय: आचार्य हरिभद्रसूरि के ग्रंथो में देखने को नहीं मिला। पाँच महाव्रत एवं छट्ठा रात्रिभोजन विरमणव्रत का वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग में इस प्रकार वर्णित है। तत्थणं जे से अणगारविणए से णं पंच महवयाइं पन्नताई तं जहा सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिन्नादाणाओं वेरमण, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं / 2222 अणगार विनय पाँच महाव्रत रूप है - वे इस प्रकार है समस्त प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह का त्याग करना साथ ही रात्रिभोजन का भी सर्वथा त्याग करना इन महाव्रतों का वर्णन स्थानांग२२३ 'पक्खिसूत्र'२१४ तथा आचारांग में एक एक महाव्रत के साथ महाव्रत की भावनाओं का भी उल्लेख किया है तथा आचार्य हरिभद्र रिने अपने धर्मसंग्रहणी' ग्रन्थ में दार्शनिकता को विस्तार से उजागर करते हुए अनेक शंकाओ एवं समाधानों पर्षक पाँच महाव्रत का समुल्लेख किया है। [ आचार्य हरिपटसरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI VA चतुर्थ अध्याय | 282)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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