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________________ पृथ्वी के समान सभी खेद संतापो में सहिष्णु होता है। कमल के समान संसार के काम भोगों से अलिप्त रहता है। सूर्य के समान सभी स्थानों में प्रकाशमान रहता है।२०९ इस प्रकार आचार्य हरिभद्र सूरि ने आगम की व्याख्या का अनुसरण करते हुए भी अपनी वृत्ति में एक दार्शनिक शैली से पारमार्थिक रूप से समण' शब्द को उजागर किया। अन्तिम गाथा का विवेचन ‘अनुयोगद्वार२१०' में भी मिलता है। आचार्य उमास्वातिजी ने ‘प्रशमरतिसूत्र' में श्रमण का स्वरूप इस प्रकार बताया है। तुल्याख्यकुलाकुलविविक्तबन्धु जनशत्रु वर्गस्य। समवासी चन्दन कल्पन प्रदेहादि देहस्य / आत्मरामस्य सतः समः समतृणमणिमुक्तलोष्ठकनकस्य / स्वाध्यायध्यानपरायणस्य दृढमप्रमत्तस्य // 211 जंगल और शहर में समान बुद्धि रखनेवाले, बंधुजन और शत्रुवर्ग को अपनी आत्मा से मित्र मानने वाले, शरीर पर शीतल चंदन का विलेपन करने वाले पर तथा वांस से शरीर का छेदन करने वाले पर सदृश भाव रखने वाले आत्मा में ही रमण करने वाले लोष्ठ और सोने को समान रुप से त्याग करने वाले, तृण और मणि को समान गिनने वाले, स्वाध्याय और ध्यान में दत्तचित्त अतिशय अप्रमत्त महामुनि होते है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'श्रमण' की व्युपत्ति ऐसी भी की “श्राम्यति इति श्रमण'' अर्थात् प्रवज्या दिन से लेकर सम्पूर्णसावध योग से विरक्त तथा गुरु के उपदेश से यथाशक्ति अनशनादि तप को करता है जैसे कि कहा यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावेरषु च / तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः // 212 जो त्रस तथा स्थावर सभी प्राणिओं पर समभाव पूर्वक रहता है तप को करता है ऐसा यह शुद्ध आत्मा श्रमण कहलाता है। श्राम्यति इति श्रमण' की यह व्युत्पत्ति अभिधान राजेन्द्रकोष२९३, स्थानांग२१४ आदि आगमों में भी मिलती है। तत्त्व, भेद और पयार्य से साधु की व्याख्या करने से साधु शब्द के भिन्न भिन्न पर्याय होते है उसे कहते है। पव्वइए अणगारे, पासंडे चरग तावसे भिक्खू। परिवाई ए य समणे निगंथे संजए मुत्ते // 215 / आचार्य हरिभद्रसूरि नियुक्ति की इस गाथा में अपना चिन्तन प्रगट करते हुए कहते है कि यद्यपि समण साधु के लिए प्रयुक्त होता फिर भी आगम तथा शास्त्रों में उसके पर्यायवाची शब्द भी मिलते है अत: उनको भी जानना आवश्यक है वह इस प्रकार - प्रकर्ष से दूर अर्थात् आरंभ परिग्रह से जो दूर हो गया है वह प्रव्रजित कहलाता है। द्रव्य से और भाव से [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII III चतुर्थ अध्याय 280]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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