________________ जीव का अनुराग उस जिनवाणी श्रवण, श्रद्धान करने और उसके अनुसार आचरण करने में स्वयमेव प्रवृत्त कहलाता है यह श्रावक का लक्षण जो कहा गया है वह सार्थक ही है। यहाँ यह विशेष स्मरणीय रहे कि श्रावक सम्यग् दृष्टि है। बिना सम्यग् दर्शन के यथार्थतः कोई श्रावक नहीं हो सकता। इसका मुख्य कारण यह कि मिथ्यादृष्टि जीव को वैसा धर्मानुराग सम्भव नहीं है / अतः सम्यग्दृष्टि आत्मा ही श्रावक के आचारों को पालने में समर्थ होता है। इसीलिए श्रावक प्रज्ञप्ति' में कथित “संपत्तदंसणाई' विशेषण श्रावक के लिए सार्थक सिद्ध होता है। तथा गुणस्थान की दृष्टि से भी देखा जाय तो सम्यग् अर्थात् अविरति गुणस्थान चौथा है तथा देशविरति गुणस्थान पाँचवा है अत: चौथे गुणस्थान को प्राप्त करने के पश्चात् पाँचवा देशविरति (श्रावकधर्म) प्राप्त करता है। __ आचार्य हरिभद्रसूरि रचित 'श्रावकाचार' के ग्रन्थों में श्रावक के भेदो का वर्णन नहीं मिलता है लेकिन आगम में जैसे कि स्थानांग में मिलता है / वह इस प्रकार “चउव्विहा समणोवासगा पण्णता, तं जहा अम्मापिइसमाणे, भाइ समाणे, मित्तसमाणे, सवित्तसमाणे। अहवा चउव्विहा समणोवासगा पण्णता, तं जहा आयंस समाणे, पडागसमाणे, खाणुसमाणे, खरंट समाणे।५ स्थानांग में श्रमणोपासक चार प्रकार के बताये है / वे इस प्रकार- 1. माता-पिता के समान, 2. बंधु के समान, 3. मित्र के समान, 4. सपत्नि के समान। अथवा प्रकारान्तर से आरिसा (दर्पण) के समान, 2. ध्वजा के समान, 3. स्तंभ के समान, 4. खरंटक के समान। 1. माता -पिता के सामान - साधु भगवंत का यदि कोई कार्य होतो उनके बारे में विचार करे। यदि साधु का कोई प्रमाद स्खलना दृष्टि में आये तो भी साधु पर से राग कम न करे और जैसे माता उपने पुत्र पर हित के परिणाम रखती है वैसे ही मुनिराज पर अतिशय हित के परिणाम रखे वह श्रावक माता-पिता के समान है। .. 2. बंधु के समान - जो श्रावक साधु के ऊपर मन में तो बहुत राग रखे, पर बाहर से विनय करने में मंद आदर दिखावे, परन्तु यदि कोई साधु का पराभव करे तो उस समय शीघ्र वहाँ जाकर मुनिराज को सहायता करे वह श्रावक बंधु के समान है। 3. मित्र समान - जो श्रावक अपने को मुनि के स्वजन से भी अधिक समझे तथा कोई कार्य में मुनिराज इसकी सलाह न ले तो मनमें अहंकार करे रोष करे वह मित्र समान है। 4. सपत्नि के सामान - जो श्रावक अत्यंत अभिमानी होकर साधु के छिद्र देखा करे प्रमादवश हुई उनकी भूल हमेशा कहा करे, उनको तृणवत् समझे वह श्रावक सपत्नीक के समान है। प्रकारान्तर से 1. आरिसा के समान - गुरु का कहा हुआ सूत्रार्थ जैसा हो वैसा ही उसके मन में उतरे उस श्रावक को सिद्धान्त में दर्पण के समान कहा है। 2. ध्वजा के समान - जो श्रावक गुरु के वचनों का निर्णय न करने से पवन जैसे ध्वजा को इधर उधर करता है वैसे ही अज्ञानी पुरुष उन्हें इधर उधर घुमावे वह ध्वजा समान है। 3. स्तंभ के समान - गीतार्थ मुनिराज चाहे कितना ही समझावे परंतु जो अपना आग्रह न छोडे और | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / IIIIA चतुर्थ अध्याय | 251