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________________ पञ्चविधोऽयं विधिवत् साध्वाचारः समनुगम्यः / / 11 'आचारांग सूत्र' में जिनेश्वर भगवंतो ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य आदि पाँच प्रकार का साधु का आचार कहा है। उसको विधि पूर्वक जानना चाहिए तथा धर्मबिन्दु की टीका में लोच, स्नान नहीं करना भी साधु के आचार बताये है। दशवैकालिक में भी इसी बात को आचार्य शय्यंभवसूरि ने कही है। निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया, खरीदा गया, आदरपूर्वक निमंत्रित कर दिया जाने वाला, निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सन्मुख लाया हुआ भोजन, रात्रिभोजन, स्नान, गंध द्रव्य का विलेपन, माला पहनना, पंखा से हवा लेना, खाद्य वस्तुओं का संग्रह करना, रात वासी रखना, गृहस्थ के पात्र में भोजन करना, राजा के घर से भिक्षा ग्रहण करना, अंगमर्दन करना, दांत पखारना, गृहस्थ की कुशल पृच्छा करना, दर्पण देखना - ये श्रमण के लिए त्याज्य है। इनका त्याग करना ही आचार है।१२ यही बात श्री भागवद् में वानप्रस्थों के लिए कही है - केषरोम-नख-श्मश्रु-मलानि विभृयादतः। न धावेदप्स मज्जेत त्रिकाल स्थण्डिलेशयः // 13 केश, रोएँ, नख और मूंछ दाढी रूप शरीर के मेल को हटावे नहीं, दातुन न करे, जल में घुसकर, त्रिकाल स्नान न करे और धरती पर ही पड़ा रहे। यह विधान वानप्रस्थों के लिए है। सुसमाहित निर्ग्रन्थ ग्रीष्म में सूर्य की आतापना लेते है। हेमन्त में खुले बदन रहते है और वर्षा में प्रतिसंलीन होते है एक स्थान में रहते है। साधु कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे बैठे ? कैसे सोए? कैसे खाए? कैसे बोले ? जिससे पापकर्म न हो / जो यतना से चलता है, यतना से ठहरता है और यतना से सोता है, यतना से भोजन करता, यतना से भाषण करता है- वह पाप बन्ध नहीं करता है और अपने आचारों में स्थित रहता है।५ . अन्य दर्शनों में साधुओं के लिए इस प्रकार के आचार बताये है - ग्रीष्म में पंचाग्नि से तपे, वर्षा में खुले मैदान में रहे और हेमन्त में भीगे वस्त्र पहनकर क्रमशः तपस्या की वृद्धि करे। यह विधान भी वानप्रस्थाश्रम को धारण करनेवाले साधक के लिए है।१६ श्रीभागवद् गीता में स्थितप्रज्ञ के विषय में पूछा गया कि - हे केशव ! समाधि में स्थित स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण है ? और स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है ? कैसे चलता है?१७ भिक्षु यतना से चले, यतना से बैठे, यतना से ठहरे, यतना से सोए, यतना से भोजन करे, यतना से अपने अंगों को प्रसारित करे।१८ [आचार का आधार आत्मज्ञान जैन शासन में आचार का आधार आत्मज्ञान बताया है। “आचारेणैवात्मसंयमो भवति" - आचार के द्वारा ही आत्मसंयम की प्राप्ति होती है और संयमित आत्मा को आत्मज्ञान होता है तथा आत्मज्ञानी आत्मा ही आचारों का सुसमाहित बनकर पालन कर सकता है और जिससे सर्व श्रेष्ठ मोक्ष पद को भी प्राप्त कर सकता है / | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIII III चतुर्थ अध्याय | 243
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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