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________________ चतुर्थ अध्याय आचार - मीमांसा आचार की परिभाषा - जैन वाङ्मय के साथ-साथ सभी दर्शनों में आचार' शब्द का प्रयोग किया गया है तथा सभी ने आचार को मान्यता प्रदान की है। आचार से जीवन में सुस्थिरता आती है। आचार के द्वारा जीव को प्रशस्त मार्ग प्राप्त होता है। अतः जैन दर्शनकारों ने आचार को विशेष महत्त्व प्रदान किया है। आचार व्यक्ति को मर्यादा में रहकर जीवन जीना सिखाता है। अतः आगमकारों ने आचार शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी है : “आचारो ज्ञानाचारादिः पञ्चधा आ मर्यादयाचारोविहार आचारः”।' ___ मर्यादा में रहकर ज्ञानादि पाँच प्रकार के आचारों का पालन करना ही आचार है अथवा मोक्ष के लिए लिये जानेवाले अनुष्ठान विशेष आचार है। अथवा पूर्वाचार्यों द्वारा आचरित किये गये ज्ञानादि आसेवन विधि आचार है। __आचार्य हरिभद्रसूरि ने दशवैकालिंक बृहद् टीका में तथा सम्यक्त्व सप्ततिका में आचरणं आचार' जिसका आचरण किया जाय वह आचार / इस व्याख्या में कुछ शंका संभवित है, क्योंकि प्रत्येक क्रिया को यदि आचार कहा जायेगा तो, जीवन में अनर्थकारी होनेवाली क्रियाएँ भी आचार बन जायेगी, जो कि योग्य नहीं है। अतः मुनिचन्द्रसूरि ने धर्मबिन्दु की टीका में आचार की व्याख्या इस प्रकार की है - ‘आचारो लोचास्नानादि साधु क्रिया रूप व्यवहारः।' आचार अर्थात् लोच अस्नानादि साधु की क्रिया रूप व्यवहार / इस प्रकार का आचार जीवन को उन्नत बनाता है। क्योंकि अज्ञानी बाल जीव भी इस प्रकार के आचार को देखकर बोध प्राप्त कर लेता है। वे आत्मा तो आचार को देखकर ही अनुमोदना करते है। आचार को पालता हुआ आचारवान् सभी के लिए आदरणीय बनता है। इसलिए महापुरुषों ने आचार संबंधी अनेक ग्रंथों की रचना की है। स्वयं परम तारक परमात्मा केवलज्ञान की दिव्य ज्योति प्राप्त होने के पश्चात् प्रथम आचार सम्बन्धी ही उपदेश देते है। उसके बाद अन्य उपदेश देते है / जैसे कि - सव्वेसिं आयारो तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए। सेसाई अंगाई एक्कारस आणुपुव्वीए॥६ तीर्थंकर देव तीर्थ प्रवर्तन के समय सर्व प्रथम आचार का उपदेश देते है। इसके पश्चात् क्रमशः अन्य अंगों का प्रवचन करते है। अतः अंगो में आचारांग को प्रथम स्थान दिया है। तथा गणधर भगवंत भी सूत्र की रचना इसी क्रम से करते है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII चतुर्थ अध्याय | 2411
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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