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________________ के सौष्ठव से स्वयं एवं अन्य आत्माओं को जागृत किये। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने तो धर्मसंग्रहणी' में यहाँ तक कह दिया है, ज्ञान की भक्ति से तो आवरणीय कर्मों का क्षय होता है। लेकिन उसके साथ ज्ञानी ज्ञान के साधन इनके प्रति भी हमारी भक्ति विशेष रूप से होनी अनिवार्य है। आसेवन विधि में उनका कथन है कि ज्ञानदाता के प्रति हमारी सम्पूर्ण सुख सुविधाओं का संयोजन करना भी एक ज्ञान की भक्ति का संयोग स्वीकार किया गया है। इन अधिगम गुणों से मनुष्य उत्तरोत्तर उज्ज्वल ज्ञान प्रिय ज्ञानवान् होने का सामर्थ्य रखता है। अतः ज्ञान स्व का हितकारी पर का उपकारी स्वीकार किया गया है। नाणस्स णाणिणं णाणसाहगाणं च भत्ति बहुमाणा। आसेवन वुड्डादि अहिगमगुणमो मुणेयव्वा // 128 विवेक के प्रदीप को कभी धूमिल न होने देने के लिए आचार्यों ने स्वाध्याय को सर्वश्रेष्ठ साधन माना है। स्वाध्याय श्रुत धर्म का ही एक विशिष्ट अंग है। श्रुतधर्म हमारे चारित्र धर्म को जगाता है। चारित्र से आत्मा की विशुद्धि होती है। आत्मविशुद्धि से कैवल्य की उपलब्धि होती है। कैवल्य से एकान्तिक तथा आत्यन्तिक विमुक्ति, विमुक्त से परमसुख जो मुमुक्षुओं का परम ध्येय एवं अन्तिम लक्ष्य है। सारांश - ज्ञान मीमांसा अर्थात् जीवन को ज्ञान के प्रकाश पुञ्ज से आलोकित करना, आत्मा के आन्तरिक गुणों में अवगाहन करना है। ज्ञान की विचारणा तभी ही शक्य है जब व्यक्ति बाह्य आडम्बरों चिन्ताओं एवं कार्य-कलापों से अपने आपको दूर रखता है और ज्ञान की अगाध गहराई में तल्लीन निमग्न हो जाता है। जो गहराई में डूबते है वही चिन्तन के मोती प्राप्त करते है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ज्ञान के अगाध चिन्तन में डूब गये। तत्पश्चात् उनको जो सिद्धान्त रूपी रत्न प्राप्त हुए उनको शास्त्रों में निबन्ध किये। उन्होंने अपने चिन्तन के मन्थन द्वारा जो ज्ञान की व्युत्पत्ति की वह बहुत ही सचोट एवं सुगम्य है जो उनके शास्त्रों में मिलती है। जिस व्युत्पत्ति को उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी स्वीकारी है तथा जो आज भी विद्वत् जनों के लिए माननीय एवं प्रशंसनीय बनी है। ज्ञान के भेद - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव एवं केवलज्ञान के भेद एवं प्रभेदों का विस्तृत विवेचन और आवरणीय कर्मरूप कारण पाँच होने से ज्ञान के भेद भी पाँच बताये है। क्योंकि कारण के बिना कार्य की सिद्धि शास्त्रों में स्वीकृत नहीं की है। प्रभेदों में मतिज्ञान के 28, श्रुतज्ञान के 14 और 20, अवधिज्ञान के 6, मनःपर्यव के 2 और केवलज्ञान के परमार्थतः भेद नहीं है उपचार से भेद किये है। - वैसे ज्ञान के सभी भेद प्रभेद केवलज्ञान में अन्तर्निहित हो जाते है। लेकिन आचार्यश्री ऐसा न करके सभी के भिन्न-भिन्न भेदों-प्रभेदों की प्ररूपणा करके सभी का अपना निजी अस्तित्व अवस्थित रखने का प्रयास किया है। अन्यथा आगमों में जो तीर्थंकर प्ररूपित एवं गणधरों द्वारा रचित पाँच ज्ञान के वचन के साथ विरोध आ जाता ऐसा न हो, इस बात को ध्यान में रख के पंचज्ञान की जो सिद्धि धर्मसंग्रहणी' जैसे ग्रन्थ में की वह सार्थक सिद्ध होती है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII तृतीय अध्याय | 235]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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