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________________ मीमांसक ज्ञान को आत्मा का ही गुण मानते है। इन्होंने ज्ञान और आत्मा को तादात्म्य माना है। बौद्ध परंपरा में ज्ञान नाम या चित्तरुप है, मुक्त अवस्था में चित्तसन्तति समाप्त हो जाती है / उस अवस्था में यह चित्तसन्तति घटादि पदार्थों को नहीं जानती है। जैन परम्परा में ज्ञान को अनादि अनंत स्वभाविक गुण माना गया है जो मोक्ष दशा में भी अपनी पूर्ण अवस्था में रहता है।१०७ उस ज्ञान के द्वारा धर्मास्तिकायादि समस्त पदार्थों का 'सत्' नामक महासामान्य रूप से ज्ञान होता है। जैसे कि - ‘एक घट का यह सत् है / इस प्रकार सद्रूप से ज्ञान हुआ। अब जगत के निखिल पदार्थों को एकरुप से संग्रह करनेवाली दृष्टि से देखा जाय तो यह सम्पूर्ण जगत सत् रूप है / सद् से भिन्न कुछ भी नहीं। अतः एक घट को सत् रुप से जान लेने पर समस्त विश्व को सत् रूप से जान लिया। सत् रुप से ज्ञात होने में जगत का एक भी पदार्थ शेष नहीं रहा। धर्मास्तिकायादि सकल ज्ञेय पदार्थ ज्ञात हो गये, क्योंकि वे सत् है, जो सत् नहीं, वे ज्ञेय भी नहीं बन सकते, जैसे कि शशश्रृंग, आकाशपुष्प। अतः जो सत् है वह अवश्य ज्ञेय बनता ही है और वह सद्रूपता यानि महासामान्य है / इससे कोई भी आवेष्टित है। तथा सामान्य के साथ विशेष का बोध हो जाता है। कारण धर्म सामान्य रुप का अतिक्रमण नहीं करता है।१०८ .. प्रकृष्ट ज्ञान में सभी पदार्थ ज्ञेय - इन सभी ज्ञेय पदार्थों का बोध तभी सिद्ध होता है जब कि वह ज्ञान प्रकृष्ट हो, क्योंकि जब तक ज्ञान पर आवरण होंगे वहाँ तक प्रकृष्ट ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती और तब तक त्रिकालवर्ती सभी ज्ञेय पदार्थों का पूर्ण बोध भी प्रगट नहीं होता है। अतः आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ‘ललित विस्तरावृत्ति' में इस बात को आलेखित करते हुए कहते है कि - 'न चास्य कश्चिद् विजय इति स्वार्थनतिलङ्घनमेव।' इसी विषय को आचार्यश्री मुनिचन्द्रसूरि ने ललितविस्तरा की पंजिका' में स्पष्ट किया है - ज्ञानातिशय प्रकृष्टरुपस्य कश्चिद्' ज्ञेय विशेष अगोचरः सर्वस्य सतो ज्ञेयस्वभावानतिक्रमात् केवलस्य निरावरणत्वेना प्रति स्खलितत्वात् इति। अर्थात् प्रकृष्ट ज्ञान (केवलज्ञान) प्रगट होने के बाद कोई ऐसा विषय नहीं रहता जो ज्ञेय न बने। क्योंकि सम्पूर्ण सत्पदार्थ जब ज्ञेय है तो, ज्ञेय का अर्थ यह है कि वे ज्ञान - गाह्य है, और जब वैसे ज्ञान के ग्राह्य स्वरूप का वे उल्लंघन नहीं कर सकते है तब वे किसी न किसी ज्ञान के विषय अवश्य बनते है, वह है प्रकृष्ट / यह सम्पूर्ण ज्ञेयों का अवगाहन करेगा ही। अतः वह निरावरण ज्ञान की मर्यादा नहीं बांध सकते है कि वह उतना ही जान सकता है ज्यादा नहीं। अतः वह निरावरण समस्त ज्ञेयों में अस्खलित रूप से पहुँच सकता है। अतः ‘नमुत्थुणं' के अन्तर्गत ‘अप्पडिहयवरनाण-दसणधराणं' पद का अर्थ जो अस्खलित, अप्रतिहत, श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन के धारकत्व है उसका यहाँ अतिक्रमण नहीं होता है, क्योंकि इस विशेषणों से विशिष्ट ही तीर्थंकर, सर्वज्ञ का ज्ञान दर्शन होता है, जिसमें सभी पदार्थ ज्ञेय बनते।१०९ [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V MA तृतीय अध्याय 227
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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