________________ तात्त्विक विषयों की समस्या में उपस्थित होनेवाली कठिनाइयों को दूर करने के लिए अपेक्षावाद के समान उसकी कोटि का दूसरा कोई सिद्धान्त नहीं है। * विरुद्धता और विविधता का भान कराकर उसका सुचारु रूप से समन्वय करने में अनेकान्तवाद - अपेक्षावाद का सिद्धान्त बड़ा ही प्रवीण एवं सिद्धहस्त है।४३८ काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के दर्शनाध्यापक भिक्खनलाल आत्रेय एम.ए.डी. लिट् स्याद्वादमंजरी के प्राक् कथन में अनेकान्त के विषय में कहते है कि - “सत्य और उच्च भाव और उच्च विचार किसी एक जाति या मजहबवालों की वस्तु नहीं है। इन पर मनुष्य मात्र का अधिकार है। मनुष्य मात्र को अनेकान्तवादी स्याद्वादवादी और अहिंसावादी होने की आवश्यकता है। केवल दार्शनिक क्षेत्र में ही नहीं, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में भी।४३९ सर विलियम हेमिल्टन आदि पाश्चात्य विद्वान् कहते है कि - पदार्थ मात्र परस्पर सापेक्ष है। अपेक्षा के बिना पदार्थत्व ही नहीं बनता / अश्व कहते है वहाँ अनश्व की अपेक्षा हो ही जाती है। दिन कहने पर रात्रि की अपेक्षा होती है। अभाव कहने पर भाव की अपेक्षा रहती है।४४० सशास्त्र के विद्वान् प्रो. विलियम जेम्स ने भी लिखा है - ‘साधारण मनुष्य इन सब दुनियाओं का एक दूसरे से असम्बद्ध तथा अनपेक्षित रूप से ज्ञान करता है। पूर्व तत्त्ववेत्ता वही है, जो संपूर्ण दुनियाओं से एक दूसरे से सम्बद्ध और अपेक्षित रूप में जानता है।४४९ एक तरफ अनेकान्तवाद का समर्थन भी जोर-शोर हुआ तो दूसरी ओर कुछ दर्शनकारों ने, विद्वानों ने अनेकान्तवाद की कडवी आलोचना भी की है। डॉ. सर राधाकृष्ण इण्डियन फिलॉसोफी में स्याद्वाद के ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते है कि - ‘इसमें हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्य का ही ज्ञान हो सकता है। स्याद्वाद से हम पूर्ण सत्य को नहीं जान सकते।४४२ इसी तरह प्रो. बलदेव उपाध्याय राधाकृष्ण का अनुसरण करते यहाँ तक लिखा है कि - ‘इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थ के बीचोबीच तत्त्वविचार को कतिपय क्षण के लिए विस्रम्भ तथा विराम देनेवाले विश्राम गृह से बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता।४३ इसी तरह श्रीयुत हनुमन्तराव एम.ए. ने अपने 'JAIN INSTRUMENTAL THEORY OF KNOWLEDGE' नामक लेख में लिखा है कि - ‘स्याद्वाद सरल समझौते का मार्ग उपस्थित करता है, वह पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता।' आचार्य शंकाराचार्य ने भी शंकरभाष्य में अनेकान्तवाद का बहुत खण्डन किया है। लेकिन ये सब एक ही प्रकार के विचार है जो स्याद्वाद के स्वरूप को न समझने के या वस्तुस्थिति की उपेक्षा करने के परिणाम है। ___ आचार्य हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शन समुच्चय, अनेकान्त-जयपताका आदि में अनेकान्त के विरोधियों का खण्डन किया है तथा अनेकान्तवाद का मण्डन डंके की चोट के साथ किया है जैसे उनका यह | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII द्वितीय अध्याय | 1830