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________________ दार्शनिक तथ्यों से नियंत्रित पायी गई है। अनेकान्तदर्शन एक नियमबद्ध दार्शनिकता को दर्शित करता अनेकान्तता का आकार आयोजित करता है। एकान्त से किसी भी विचार को दुराग्रहपूर्ण व्यक्त करने का निषेध करता है पर ससम्मान समादर भाव से संप्रेक्षण करता सत्यता का सहकारी हो जाता है। पूर्वकाल के दार्शनिक वातावरण में परस्पर विरोधों का वचन-व्यवहार पाया गया है। श्रमण भगवान महावीर ने निर्विरोध विचारों को उच्चारित कर आक्षेप रहित सिद्धान्तों को संगठित करके निर्मल नयवाद को अभिनव रुप दिया, यह अभिनवता ही अनेकान्तवाद की छबि है। स्याद्वाद सिद्धि का साक्षात्कार है और समन्वयता का संतुलित शुद्ध प्रकार है जो निर्विरोध भाव से विभूषित होता विश्वमान्य दर्शन की श्रेणि में अपना सम्माननीय स्थान बनाता गया। इस अनेकान्तवाद के सूक्ष्मता से उद्गाता तीर्थंकर परमात्मा हुए, गणधर भगवंत हुए एवं उत्तरोत्तर इस परंपरा का परिपालन चलता रहा। इस सिद्धान्त स्वरुप को नयवाद से न्यायसंगत बनाने में मल्लवादियों का महोत्कर्ष रहा, सिद्धसेन दिवाकर का प्रखर पाण्डित्य उजागर हुआ, वाचकवर उमास्वाति ने इसी विषय को सूत्रबद्ध बनाया, समदर्शी आचार्य हरिभद्र अनेकान्तवाद के स्वतन्त्र सुधी बनकर ‘अनेकान्तजयपताका' जैसे ग्रन्थ के निर्माण में अविनाभाव से अद्वितीय रहे। ___आज अभी अनेकान्तदर्शन की जो महिमा और जो मौलिकता मतिमानों के मानस मूर्धन्यता से माधुर्य को महत्त्व दे रही है इसका एक ही कारण है कि जैनाचार्यों ने समग्रता से अन्यान्य दार्शनिक संविधानों का सम्पूर्णता से स्वाध्याय कर समयोचित निष्कर्ष को निष्पादित करते हुए अनेकान्त की जयपताका फहराई। वह अनेकान्त किसी एकान्त कोणे का धन न होकर अपितु विद्वद्-मण्डल का महतम विचार संकाय बना। भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के संवादों को आत्मसात् बनाने का स्याद्वाद दर्शन ने सर्व प्रथम संकल्प साकार किया और समदर्शिता से स्वात्मतुल्य बनाने का आह्वान किया। इस आह्वान के अग्रेसर, अनेकान्त के उन्नायक आचार्य हरिभद्र हुए जिन्होंने समदर्शिता को सर्वत्र प्रचलित बनायी।। प्रचलन की परंपराएँ प्रतिष्ठित बनाने में प्रामाणिकता और प्रमेयता इन दोनों का साहचर्यभाव सदैव मान्य रहा है। उपाध्याय यशोविजय जैसे मनीषियों ने प्रमाण प्रमेय की वास्तविकताओं से विद्याक्षेत्रों को निष्कंटक, निरुपद्रव बनाने का प्रतिभाबल निश्चल रखा, जब कि नैयायिकों ने छल को स्थान दिया पर अनेकान्तवादियोंने आत्मीयता का अपूर्व अनाग्ररूप अभिव्यक्त किया। स्याद्वाद को नित्यानित्य, सत्-असत्, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष, अभिलाप्य-अनभिलाप्य से ग्रन्थकारों ने समुल्लिखित किया है। वही समुल्लिखित स्याद्वाद अनेकान्तवाद से सुप्रतिष्ठित बना / इसकी ऐतिहासिक महत्ता क्रमिक रूप से इस प्रकार उपलब्ध हुई है। सर्व प्रथम आचार्य सिद्धसेन ने आगमिक स्याद्वाद को अनेकान्तरूप से आख्यायित करने का शुभारंभ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व III द्वितीय अध्याय 176
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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