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________________ स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः।' सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से ज्ञान-दर्शन के उपयोग के लक्षण वाले आत्मा का अपनी आत्मा में रहना, रमण करना ही मोक्ष कहलाता है। . अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने को मोक्ष कहते है। आठ कर्मों में से चार कर्म पहले ही क्षीण हो जाते है और उस समय केवलज्ञान की प्राप्ति होती है / शेष चार अघाति कर्मों का क्षय होने पर केवलीभगवान का औदारिक शरीर से भी वियोग हो जाता है / जिससे पुनर्जन्म का ही अभाव हो जाता है। यह अवस्था कर्मों के सर्वथा क्षयरूप है, इसी को मोक्ष कहते है। मोक्ष तत्त्व के नव अनुयोगद्वार से नव भेद है - सत्पदप्ररुपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव, अल्पबहुत्व। (1) सत्पदप्ररूपणा - मोक्ष मार्ग विद्यमान है या नहीं ? इसके संबंध में प्रतिपादन करना सत्पद प्ररूपणा कहलाती है। (2) द्रव्य प्रमाण - सिद्ध के जीव कितने है ? उसकी संख्या का विचार करना द्रव्यप्रमाण द्वार। (3) क्षेत्र द्वार - सिद्ध के जीव कितने क्षेत्र में अवगाहित रहते है। वह निश्चय करना क्षेत्रद्वार। (4) स्पर्शना - सिद्ध के जीव कितने आकाश प्रदेशों का स्पर्श करते है उसका विचार करना स्पर्शनाद्वार। (5) कालद्वार - सिद्धत्व कितने काल तक रहता है उसका चिन्तन करना कालद्वार / (6) अन्तरद्वार - सिद्धों में अंतर है या नहीं अर्थात् परस्पर अन्तर है या नहीं उसका विचार करना अन्तरद्वार। (7) भागद्वार - सिद्ध के जीव संसारी जीवों से कितने भाग में है वह विचार करना भागद्वार। (8) भावद्वार - उपशम आदि पाँच भावों में सिद्धों को कौनसा भाव घटता है उसका विचार करना भावद्वार। (9) अल्पबहुत्वद्वार - सिद्ध के 15 भेद में से सिद्ध होनेवाले सिद्ध एक दूसरे से कौन कम ज्यादा है वह विचार करना अल्प बहुत्व द्वार / 3900 .. इस प्रकार नवतत्त्व की विचारणा नवतत्त्व-पंचास्तिकाय तथा उत्तराध्ययन सूत्र एवं टीका में विस्तारपूर्ण मिलती है। लेकिन वाचक उमास्वाति म.सा. ने तत्त्वार्थ सूत्र में आ. हरिभद्रसूरि ने ध्यानशतकवृत्ति में शुभ कर्म का आश्रव पुण्य और अशुभ कर्म का आश्रव पाप इस प्रकार पुण्य-पाप का आश्रव तत्त्व में समावेश हो जाने से सात तत्त्व भी सिद्ध किये है। वह इस प्रकार है - जीवादिपदार्थविस्तरोपेतं जीवाऽजीवाऽऽश्रव-बन्धसंवर-निर्जरा मोक्षाख्य पदार्थप्रपञ्चसमन्वितं समयसद्भावमिति योगः।३९१ जीवादि पदार्थों में जीव-अजीव-आश्रव-बंध-संवर-निर्जरा व मोक्ष नामक वस्तुओं का विस्तार है। आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा रचित बृहद्रव्य संग्रह में सात तत्त्व इस प्रकार बताये हैं - आसव-बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपावा जे। जीवाजीवविसेसो ते वि समासेण पभणामो॥३९२ [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व M O NIA द्वितीय अध्याय | 165
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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