________________ चतुरिन्द्रिय, अशुभ विहायोगति, उपघात, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, प्रथम सिवाय संघयण और संस्थान। पुण्यपाप की चतुर्भगी इस प्रकार है - (1) पुण्यानुबंधि पुण्य (2) पुण्यानुबंधि पाप (3) पापानुबंधि पुण्य (4) पापानुबंधि पाप (5) आश्रव तत्त्व - 'आ' अर्थात् समन्तात् चारो तरफ से 'श्रव' यानि आना अथवा आश्रूयते उपादीयते - कर्म ग्रहण होना अथवा अश्नाति-आदत्ते कर्म यैस्ते आश्रवाः - जीव जिसके द्वारा कर्मों को ग्रहण करता है वह आश्रव है अथवा आ यानि चारों तरफ से श्रवति क्षरति जलं सूक्ष्मरन्ध्रेषु यैस्ते आश्रवाः अर्थात् सूक्ष्म छिद्रों में से होकर जल रूप कर्म प्रवेश करते है वह आश्रव। जिस प्रकार नाव में रहे हुए क्षुद्र छिद्रों द्वारा जल का प्रवेश होने पर नाव जल में डुब जाती है। उसी प्रकार हिंसादि छिद्रों द्वारा जीवरूपी नाव में कर्मरूपी जल के प्रवेश होने पर जीव संसाररूप समुद्र में डूब जाता है। अतः कर्म आना ही आश्रव है। अथवा जिस क्रियाओं के द्वारा शुभाशुभ कर्म आते है ऐसी क्रियाएँ भी आश्रव तत्व है। जिस प्रकार सरोवर में द्वारमार्ग से वर्षा का जल प्रवेश करता है उसी प्रकार जीवरूपी सरोवर में भी हिंसादि द्वारमार्ग से कर्मरूपी वर्षाजल प्रवेश करता है। आश्रव के भेद - पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत, तीन योग, पच्चीस क्रियाएँ कुल 42 आश्रव के भेद है। _____ आत्मा के शुभाशुभ परिणाम तथा योग के द्वारा होनेवाला आत्म प्रदेशों का कम्पन भावाश्रव कहलाता . है और उसके द्वारा आठ प्रकार के कर्मप्रदेशों का ग्रहण होता है वह द्रव्याश्रव कहलाता है। संवरतत्व - आश्रव का निरोध करना वह संवर कहलाता है। अर्थात् आने वाले कर्मों को रोकना। जिसके द्वारा कर्मों को रोका जाता है ऐसे व्रत-पच्चक्खाण तथा समिति-गुप्ति संवर कहलाते है। - 'संव्रियते कर्म कारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः।' अर्थात् कर्म और कर्म के कारण प्राणातिपात आदि जो आत्म परिणाम के द्वारा रोके जाय वह संवर। तत्त्वार्थ टीका में संवर की व्याख्या इस प्रकार की - ‘आश्रवदोष परिवर्जनं संवरः।'३८६ आश्रव के दोषों को छोडना ही संवर है। अथवा संवर यानि 'आत्मनः कर्मादानहेतुभूत परिणामाभावः संवरः।' आत्मा के कर्मादान हेतुभूत परिणाम का अभाव होना संवर है। संवर दो प्रकार का है - सर्वसंवर और देशसंवर। बादर सूक्ष्मनिरोध के समय सर्वसंवर होता है / शेषकाल अर्थात् चारित्र स्वीकार करने पर देशसंवर होता है। संवर के भेद - तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस यति धर्म, बाईस परिषह, बारह भावना - इस प्रकार संवर के 52 भेद है। आश्रव के निरोधरूप संवर की सिद्धि इन कारणों से होती है। (7) निर्जरा तत्त्व - कर्मों का आत्म प्रदेशों से दूर होना, नाश होना निर्जरा कहलाता है। जिसके द्वारा कर्मों का नाश होता वह तपश्चर्या विगेरे निर्जरा कहलाती है। अथवा [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII द्वितीय अध्याय | 163]