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________________ .L गुरु कृपा शून्य में को कार्जन ! इसके पीछे बल है गुक कृपा !! क्या कहूँ और कहाँ से प्रावाम्भ क गुरुकृपा की महिमा क्योंकि वह अनिर्वचनीय अवर्णनीय है। उसको शब्दों की पंक्तियों में बांधना शक्य नहीं है। फिर भी जीवन में साक्षात् अनुभूति हुई है उताको साकाव कप देवही हूँ। जब को मेवे जीवन का दौव प्रावम्भ हुआ तब से गुक कृपा मेवे पव बवाती वही और गुकदेवी श्री के प्रति मैं आक्थावान् बनी, वहीं आक्था हिमालय की भाँति अविचल अटूट बनती वही। गुकदेव श्री का दिव्यभाल सौम्य मुवव कमल को जब-जब निहावती तब-तब मुझे मानो मूक रूप में दिव्य प्रेवणा मिलती वहती। उत्तिष्ठ वत्स ! आगे बढ़ो, जीवन को उच्य साधना की ऊँचाईयों को तप की तेजस्विता को, ज्ञान की गविमा को, कामर्पण की भावना को, आक्था के दीपकों को जाज्वल्यमान बनाओ! इका प्रेवणा ने मेवी सुषुप्त आत्मा को झकझोव दिया औव अर्न्तवात्मा में नूतन साधना पथ पर प्रवृत्त होने का वणकाव झंकृत हुआ। तन-मनजीवन को गुक को समर्पित किया, चिन्तन मनन की धावा प्रवाहित हुई और यह विशाल ग्रन्थ लिक्वने का सामर्थ्य प्राप्त हआ। गुकदेव श्री के प्रति व्यावी की वावी वही हुई भक्ति आक्था, कामर्पण क्पकप प्राप्त गुरुकृपा का ही फल है यह प्रस्तुत शोध-प्रबन्धग्रन्थ
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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