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________________ जीवानां पुद्गलानां च गत्युपग्रहकारणम् / धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य दीपश्चक्षुष्मतो यथा। जीवानां पुद्गलानां च स्थित्युपग्रहकारणम् / अधर्म पुरुषस्येव तिष्ठासोरवनिर्यथा // 203 जगत में छः द्रव्य एक दूसरे से बिल्कुल स्वतन्त्र लक्षणवाले हैं और इससे कभी भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप में परिवर्तित नहीं होता है। धर्मास्तिकाय गति सहायक है जिस तरह आँखवाले को वस्तुदर्शन करने में दीपक सहायक है। इसी तरह जीव पुद्गल को गति करने में धर्मास्तिकाय सहायक है। इसलिए ये दो द्रव्य लोकाकाश के अन्त तक जा सकते है। आगे अलोक में नहीं, क्योंकि धर्मास्तिकाय लोकाकाश व्यापी है। स्थानांग में भी कहा है मछली गमन तो अपनी शक्ति से ही करती है पर उसमें पानी सहायक होने से पानी के किनारे तक ही वह जा सकती है। आगे नहीं या रेल पटरी गाडी की गति में सहायक होती है। इसी तरह बैठने की इच्छावाले पुरुष को स्थिर बैठने में भूमि सहायक है वैसे ही जीव और पुद्गल को स्थिति या स्थिरता करने में अधर्मास्तिकाय सहायक है / अशक्त वृद्ध पुरुष को चलते हुए बीच में खडे रहने के लिए लकडी सहायक होती है। इसी तरह घने जंगल में छायावाला पेड़ थके हारे यात्री की स्थिति में सहायक होता है। यात्री उस पेड़ के नीचे विश्रान्ति के लिए ठहर जाता है। लेकिन यहाँ यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जीव और पुद्गल गतिमान है। जिस समय ये गमनरूप क्रिया में परिणत होते है उस समय इनके उस परिणमन में बाह्य निमित्त कारण धर्म-अधर्म द्रव्य हुआ करता है। अर्थात् धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय पदार्थों को गति-स्थिति देने में उदासीन कारण है, प्रेरक कारण नहीं है। प्रेरणा करके अथवा जबरदस्ती खींचकर किसी को नहीं ले जाता है और न हि ठहराता है। यदि प्रेरक कारण होता तो बडी गडबडी उपस्थित हो जाती है। न तो कोई पदार्थ गमन ही कर सकता, न ठहर ही सकता। क्योंकि धर्मास्तिकाय द्रव्य को यदि गमन करने के लिए प्रेरित करता तो उसका प्रतिपक्षी अधर्मास्तिकाय द्रव्य उन्हीं पदार्थों को ठहरने के लिए प्रेरित करता। इसी प्रकार ये द्रव्य लोक मात्र में व्याप्त न होते तो युगपद् सम्पूर्ण लोक में पदार्थों का गमन और अवस्थान हुआ करता जो कि अशक्य है तथा ये द्रव्य आकाश के समान अनंत भी नहीं है। यदि अनंत होते तो लोक और अलोक का विभाग भी नहीं बन सकता तथा लोक का प्रमाण और आकार भी नहीं ठहर सकता। ___अतः यह लोकव्यापी और असंख्यात प्रदेशों वाला है। अर्थात् धर्मद्रव्य लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशवाले सभी प्रदेशों में सम्पूर्ण रूप से व्याप्त है। इसके भी लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेश हैं।२०४ जैसे कि तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति ने भी कहा है - ‘असङ्ख्येया प्रदेशा धर्माधर्मयोः / 205 पाँच द्रव्यों में से धर्म और अधर्म द्रव्य के असंख्यात प्रदेश है। अर्थात् प्रत्येक द्रव्य असंख्यातअसंख्यात है। धर्मद्रव्य भी असंख्यात और अधर्मद्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी है। प्रदेश शब्द से आपेक्षिक और | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII II द्वितीय अध्याय | 125]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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