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________________ (ब) क्षेत्रपर्याय - अगुरुलघु आदि तथा भरतक्षेत्र, ऐरावतक्षेत्र, महाविदेहक्षेत्र आदि की अपेक्षा से क्षेत्र पर्यायलोक। (स) भवानुभाव - वर्तमान में नारक, देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि में जो सुख-दुःख आदि का अनुभव होना भवानुभावपर्यायलोक है। (ड) भावपरिणाम - जीव और अजीव सम्बन्धि परिणाम वह भावपरिणामपर्याय लोक।१०२ जब भेद की विवक्षा न हो तब लोक एक ही है और वह भी असंख्य कोटाकोटि योजन प्रमाण है। इसकी गणना अशक्य होने से ज्ञानिओंने इसे स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टांत दिया है। जो भगवतीजी के ग्यारहवें शतक में निर्दिष्ट है। जम्बूद्वीप में मेरूपर्वत की चूलिका के चारों तरफ छः देव खडे है और जम्बूद्वीप के छोर पर जगती के उपर चारों दिशाओं में चार दिक्कुमारिकाएँ बलि के पिंड को लेकर लवणसमुद्र तरफ चारों दिशाओं के सन्मुख खडी है। ये कुमारिका इस पिंड को अपनी-अपनी दिशामें बहिर्मुख प्रक्षेप कर रही है / उस समय उन छः देवों में से कोई भी एक देव स्वयं की शीघ्रातिशीघ्र गति से जम्बूद्वीप के आस-पास भ्रमण करते उस पिंड को पृथ्वी पर गिरने से पहले ग्रहण करे, वैसी ही शीघ्र गति से ये छःओ देव लोकांत देखने की इच्छा से एक ही साथ छः दिशामें पथिक के समान चलने लगे। उस समय किसी गृहस्थ के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। उस पुत्र का आयुष्य एक हजार वर्ष का था। वह पुत्र अनुक्रम से बड़ा हुआ, उसके माता-पिता आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हुए। अनुक्रम से वह पुत्र भी आयुष्य पूर्ण करके मृत्यु को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् समय जाने पर उसके अस्थिमज्जा भी नष्ट हुए / इतना होने पर भी वह देवलोक के अन्तिम भाग में नहीं पहुँच पाया। उस पुरुष की अनुक्रम से सात-सात पेढी बीत गई। नामनिशान आदि भी नष्ट हो गये। तब भी देवलोक के पार नहीं पहुंचे। ___ उस समय किसी मनुष्य ने केवली भगवंत से प्रश्न किया कि - हे प्रभु ! उन देवोंने कितना मार्ग पार किया? तब भगवान ने कहा - बहुत मार्ग पार हो गया। थोडा शेष रहा है। अर्थात् गमन क्षेत्र अधिक और अगमन क्षेत्र थोडा है। अगत क्षेत्र, गतक्षेत्र के असंख्यातवें भाग है। अगत क्षेत्र से गत क्षेत्र असंख्यात गुणा है।१०३ केवलज्ञान के द्वारा जो देखा जाता है वह लोक धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का आधारभूत आकाश विशेष है। जिस क्षेत्र में द्रव्यों की प्रवृत्ति होती है। उन द्रव्यों सहित लोक कहा जाता है। उससे विपरीत अलोक है। यह सम्पूर्ण लोक चौदह रज्जू प्रमाण है। इसका संस्थान (आकार) आ. हरिभद्रसूरि रचित ध्यानशतकवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति में बताया है। 'सुप्रतिष्ठकवज्राकृतिर्लोकः'१०४ सम्पूर्ण लोक का आकार सुप्रतिष्ठक वज्र के समान है। अन्य आचार्यों के द्वारा प्रकारान्तर से सम्पूर्ण [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII / द्वितीय अध्याय | 100)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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