________________ लोकव्यवहार की सिद्धि मातृकापदास्तिक से ही हुआ करती है। उत्पन्नास्तिक और पर्यायास्तिक दोनों पर्यायनय के भेद है। पर्यायनय को ही प्रधान मानकर वस्तु का बोध और व्यवहार होता है। ध्रौव्य से अवशिष्ट रहते हुए भी उत्पाद और व्यय पर्याय के विषय है। उनमें से स्थूल अथवा सूक्ष्म सभी उत्पादों को विषय करनेवाले उत्पन्नास्तिक है। कोई भी उत्पाद विना विनाश के नहीं हो सकता, न रह सकता है। दोनों का परस्पर में अविनाभाव है। क्योंकि यह नियम है कि उत्पत्तिमान् है वह नियम से विनश्वर भी है। अथवा जितने उत्पाद है उतने ही विनाश भी है। अतएव उत्पन्न को जो विशिष्ट रुप से ग्रहण करता है पर्याय भेद - विनाश लक्षण है ऐसा मानकर ही वस्तु का व्यवहार करता उसको पर्यायास्तिक कहते है। इस प्रकार सत् को जैन दार्शनिकों ने सर्वोपरि सिद्ध करके अपने सदागमों में स्थान दिया है। हमारा मानस हमेशा सत् प्रवाद का विचार करें। यही विषय पूर्वो में भी परिगणित हुआ है जो चौदह पूर्व हमारी श्रमण संस्कृति के आधार है। जिनको दृष्टिवाद रूप से सम्मानित रखा गया है। जिस प्रकार आत्मद्रव्य और पुद्गल की तीन-तीन अवस्थाएँ है - उत्पन्न होना, नाश होना और द्रव्यरूप से स्थिर रहना। इसको जैन परिभाषा में त्रिपदी कहते है। उप्पन्नेइवा, विगमेइवा, धुवेइवा और वह त्रिकोण के तीन तरफ से दिखाई जाती है। विश्व के किसी भी पदार्थ की ये तीन अवस्थाएँ पायी जाती है। वैदिक परंपरा में भी विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय - ये तीनों मानते है। उत्पत्ति में देवरुप से ब्रह्मा, स्थिति में देवरुप से विष्णु और संहार में देवरुप से शंकर को मानते है। जैन परंपरा में सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति स्वीकृत्य नहीं, लेकिन विभिन्न पदार्थों के विभिन्न पर्याय रूप में उत्पत्ति स्वीकारते, लेकिन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तो अनादि-अनंत है।" ‘प्रज्ञावबोध मोक्षमाला' हेमचन्द्राचार्य रचित में भी त्रिपदी के विषय में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को त्रिमूर्ति कहकर समझाया गया है। इस प्रकार सत् को अपेक्षा विशेष लेकर सभी दार्शनिकोंने स्वीकारा है। क्योंकि सत् के बिना जगत का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। महोपाध्याय यशोविजयजी ने उत्पादादि सिद्धि की टीका में तथा आचार्य हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थ टीका में यहाँ तक कह दिया है कि यह प्रवचन गर्भसूत्र है, तथा एक दो तीर्थंकरों ने ही सत् के विषय में उपदेश नहीं दिया बल्कि अनंत तीर्थंकरों ने सत्' का लक्षण स्वीकारा है और प्रतिपादित किया है। अतः प्रवाह की अपेक्षा से यह सत् अनादि-अनंत है। परंतु व्यक्ति विशेष की अपेक्षा से अनित्य है। क्योंकि सत् स्वयं में सर्वथा शक्तिमान होता हुआ भी सापेक्षिक दृष्टि से अनित्यता में भी आ जाता है। क्योंकि सापेक्षवाद ही सत्य का साक्षात्कार करवाता है। यदि सापेक्षवाद से किसी भी विषय को विचारित करते है तो एकान्त दुराग्रह दूर हो जाता है और सर्वत्र समरसता से रहने का सुप्रयास सौष्ठवभरा हो जाता है। निर्विरोध जीवन की कडी में निर्वैर जीवन में सत् का सामञ्जस्य सापेक्षवाद से ही स्वीकार करनेवाले सर्वत्र यशस्वी रहे है। अनेकान्तदर्शन ने आग्रही होने का अनुरोध नहीं किया है। अपितु एक ऐसा विवेक दिया है जिससे मनुष्य अपने मन्तव्यों को मान रहित, अन्यों के अपमान रहित जीवन जीने का एक राजमार्ग दर्शित करता है। और वह सत् ही समूचे दार्शनिक [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V / द्वितीय अध्याय | 92 ]