________________ रूप से नाश, टुकड़े रूप में उत्पाद और पुद्गल रूप में ध्रुव / मक्खन में से घी बना, तब मक्खन का व्यय, घी का उत्पाद और गोरस रूप में उसका ध्रौव्य। . गृहस्थ में से श्रमण बना, तब गृहस्थ पर्याय का नाश, श्रमण पर्याय का उत्पाद और आत्मत्व द्रव्य का ध्रुवत्व। रामदत्त नाम का एक व्यक्ति बालक में से युवान बना तब बचपन का व्यय, युवावस्था का उत्पाद और रामदत्त रूप में ध्रौव्य। इसी प्रकार दूध का व्रतवाला अर्थात् ‘दूध ही पीना है' वह दही का भोजन नहीं करता है और दही का भोजन करना है ऐसा व्रतवाला दूध नहीं पीता है। लेकिन अगोरस का ही भोजन करना है ऐसा व्रतवाला दूध दही कुछ भी नहीं लेता है। इस दृष्टांत से भी ज्ञात होता है कि पदार्थ तीन धर्मों से युक्त है। इसी का सार महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. ने द्रव्य-गुण-पर्याय के रास में प्रस्तुत किया है। घट मुकुट सुवर्ण अर्थिआ, व्यय उत्पत्ति थिति पेखंत रे। निजरुपई होवई हेमथी दुख हर्ष उपेक्षावंत रे॥ दुग्ध दधि भुंजइ नहीं, नवि दूध दधिव्रत खाई रे। नवि दोई अगोरसवत जिमई तिणि तियलक्षण जग थाई // 14 सन्त आनन्दघन ने भी अपनी ग्रन्थावली में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के आधार पर आत्मा को नित्यानित्य प्रतिपादित किया है - अवधू नटनागर की बाजी, जाणै न बांभण काजी थिरता एक समय में ठाने, उपजै विनसै तब ही उलट पुलट ध्रुव सता राखै या हम सुनी नही कबही एक अनेक अनेक एक फुनि कुंडल कनक सुभावै जलतरंग घट माटी रविकर, अगिनत ताइ समावै॥१५ संत आनन्दघन कहते है कि आत्मा का स्वरूप बडा ही विचित्र है। उसका थाह पाना अत्यंत दुष्कर है। यह आत्मा एक ही समय में नाश होता है। पुनः उसी समय में उत्पन्न होता है। उसी समय में अपने ध्रौव्य सत्ता में स्थित रहता है। आत्मा में उत्पाद-व्यय रूप परिवर्तन होते रहते है फिर भी वह अपना ध्रौव्य सत्ता स्वरूप नित्य परिणाम को नहीं छोड़ता है। जैसे स्वर्ण के कटक, कुंडल, हार आदि अनेक रूप बनते है तब भी वह स्वर्ण ही रहता है। इसी प्रकार देव, नारक, तिर्यंच एवं मनुष्य गतियों में भ्रमण करते हुए जीव के विविध पर्यायें बदलते है। रूप और नाम भी बदलते है। लेकिन नानाविध पर्यायों में आत्मद्रव्य सदा एक सा रहता है। इसी बात को आनन्दघनजी और स्पष्ट करते हुए कहते है कि जलतरंग में भी जैसे पूर्वतरंग का व्यय होता है और नवीन तरंग का उत्पाद होता है किन्तु जलत्व दोनों में ध्रुव रूप से लक्षित होता है। मिट्टी के घड़े के आकार रूप में उत्पाद होता | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII | द्वितीय अध्याय | 84