________________ द्वितीय अध्याय तत्त्व मीमांसा (1) सत् की अवधारणा - सदा से सर्वज्ञ सिद्ध पुरुषों ने सत् को सत्यता से आत्मसात् किया है। सर्वज्ञों का आत्मसात् विषय 'सत्' सदुपदेश रूप से देशनाओं में दर्शित मिला है, जो दर्शित हो सके। मस्तिष्क को मना सके वह सत्। किसी भी काल में कुण्ठित नहीं बना ऐसा अकुण्ठित सत् सत्शास्त्रों का विषय बना, विद्वानों का वाक्यालंकार हुआ। ___सत् आगमकालीन पुरावृत्त का प्राचीनतम एक ऐसा तत्त्व रहा है जो प्रत्येक सत्त्व को सदा प्रिय लगा है। सदा प्रियता से प्रसारित होता है / यह 'सत्' तत्त्व मीमांसकों का तुलाधार न्याय बना है, जिसमें किसी को प्रतिहत करने का न वैचारिक बल रहा है और न आचरित कल्प बना। इस आचार कल्प को और विचार संकाय को उत्तरोत्तर आगमज्ञ विद्वानों ने श्रमण-संस्कृति का शोभनीय तत्त्व दर्शनरूप में समाख्यात किया। उसी सत्त्व के समर्थक, समदर्शी, सार्वभौम, सर्वज्ञवादी आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने आत्म साहित्य में समादर दिया है। हरिभद्रकालीन भट्ट अकलंक जैसे दिगम्बराचार्य ने अपने सिद्धि विनिश्चय 'न्याय विनिश्चय' जैसे प्रामाणिक ग्रन्थों में सम्पूर्णतया परमोल्लेख करके सत् को शाश्वत से संप्रसारित किया। ___ आचार्य हरिभद्रसूरि एक ऐसे बहुश्रुत महामेधावी रूप में जैन-परम्परा के पालक समुद्घोषक सूरिवर बने जिनका सत् साहित्य आज भी उसी तत्त्व का तलस्पर्शी तात्त्विक अनुशीलन के लिए प्रेरित करता है। ऐसे प्रेरक आगम निष्कर्ष निर्णायक रहकर तात्त्विक पर्यालोचना का पारावार असीम बना रहा है। .यह सत् तत्त्व स्याद्वाद की सिद्धि का महामंत्र बनकर सप्तभंगी न्याय को निखार रूप दिया है। सत् को निहारना और सत् को सश्रद्धभाव से शिरोधार्य कर जीवन के परिपालन में सहयोगी बनाना, साथी रखना यह सुकृत कृत्य आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे महाप्राज्ञों ने जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण जैसे क्षमाशीलों ने सिद्धसेन दिवाकर जैसे दीप्तिमान तार्किकों ने किया है। अन्यान्य दर्शनकारों ने इस सत् स्वरूप का सदा सर्वत्र यशोगान किया है। कहीं कहीं पर सत्त्व को समझे बिना तत्त्व को पहचाने बिना, दुष्तों से तोलने का अभ्यास भी बढाया है। परन्तु उस सत् के संविभागी श्रेष्ठ श्रमणवरों ने अपने अकाट्य तर्कों से सुसफल सिद्ध किया। वैचारिक मंथन प्रायः हमेशा कौतूहलों से संव्याप्त रहा है। फिर भी सत्प्रवाद के प्रणेता ने दृष्टिवाद जैसे पूर्व में इस विषय को परम परमार्थता से एवं प्रामाणिकता से प्रस्तुत कर जैन जगत की कीर्ति को निष्कलंकित | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII व द्वितीय अध्याय | 81 ]