________________ सारभूत निष्कर्ष हमें मिलता है वह शायद अन्यत्र अप्राप्य होगा। भारतीय विद्वानों ने तो इस ग्रन्थ को हृदय सिंहासन पर संस्थापित किया ही है, लेकिन साथ में पाश्चात्य विद्वानों ने भी इसका सिंहावलोकन करके - हृदयग्राही बनाया है। प्रो. सुवाली ने योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, लोकतत्त्वनिर्णय एवं षड्दर्शन समुच्चय का सम्पादन किया है और ‘लोकतत्त्व निर्णय' का इटालियन में अनुवाद भी किया है, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं में इसका अनुवाद होने से भी इस ग्रन्थ की पराकाष्ठा बढ़ जाती है। मेरे हाथो में तो जब लोकतत्त्व निर्णय ग्रन्थ आया और हृदयस्पर्शी बनाया तब गद-गद हो गई कि - हरिभद्र की सम्पूर्ण समत्व की गंगा यहाँ ही प्रवाहित हो गई है 'न मे पक्षपातो वीरे' जो दार्शनिकों के जिह्वा पर हमेशा नृत्य करता है वह भी इसी ग्रन्थ का श्लोक है। 15. अनेकान्त प्रवेश - जैन शासन आज भी सभी दर्शनों में शीर्षस्थ है तो उसका मुख्य कारण है अनेकान्तवाद / अनेकान्त की नींव पर रचा गया यह शासन अक्षत, अखंडित रूप से चल रहा है तथा इतर सभी दर्शनों का प्रादुर्भाव इसी से हुआ है जिसके प्रधान प्रणेता तीर्थंकर भगवंत है, नन्दीसूत्र में कहा गया है जयइ सुआणं पभवो तित्थयराण अपच्छिमो जयइ। जयइ गुरु लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो // 120 / तीर्थंकर भगवंतो से उत्पन्न आचारांगादि भेदवाला श्रुतज्ञान जयको प्राप्त करे, ऋषभादि जिनेश्वरों जय को प्राप्त करे, लोक के गुरूजय प्राप्त करे तथा महात्मा पराक्रमी महावीर भगवंत जय प्राप्त करें। तथा इसको आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी नन्दीसूत्रवृत्ति में उल्लिखित किया है / "श्रुतानां आचारादिभेदभिन्नानां प्रभवः।"१२१ इन उद्धरणों से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है सम्पूर्ण श्रुत के प्रसूता अरिहंत है “अर्हद्वक्त्रप्रसूतं" / ऐसा हेमचन्द्राचार्यने 'स्नातस्यास्तुति' में भी कहा है।१२२ / लेकिन अन्य सभी दर्शन अपनी -अपनी मान्यता को विश्व में मनोहर बनाने लगे, सभी दर्शनकार एक दूसरे का बहिष्कार तिरस्कार करने लगे, कठोर शब्दों के प्रयोग करने लगे, ऐसे विषमकारी वातावरण में आचार्य हरिभद्र का अवतरण समदर्शी के रूप में हुआ / उन्होंने समस्त दार्शनिकों के हृदयों को पहचान लिया और उनकों ललकारा, आह्वान किया कि व्यर्थ में कदाग्रही हठाग्रही बनकर तुमुल का स्वरूप क्यों धारण कर रहे हो, आ जाओ मेरे पास में आपको एक सत्यपथ के पुरोधा बना दूंगा। इस प्रकार उन्होंने अनेकान्तवाद निरूपण किया, जिसमें मिथ्याभिनिवेश को छोड़कर वस्तु की पारमार्थिकता का प्रदर्शन किया और वह है ‘अनेकान्तवाद प्रवेश'। अनेकान्तवाद जयपताका आदि ग्रन्थों में सरलता सुगमता से यदि प्रवेश पाना हो तो, उसकी वास्तविकता समझना हो तो प्रथम अनेकान्तवाद-प्रवेश का साङ्गोपांग अध्ययन आवश्यक है क्योंकि प्रवेश के बिना वस्तु के मर्म को जान नहीं पायेंगे, उस विशाल ग्रन्थ को समझना हो तो पहले अनेकान्तवाद-प्रवेश को हृदयंगम करना | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / A प्रथम अध्याय | 75 |