________________ जाप का समय, जाप का माप, अभिग्रह, मैत्री-प्रमोद कारुण्य-माध्यस्थ भावों का स्वरूप संप्रज्ञात समाधि का स्वरूप मुक्त अवस्था का स्वरूप। योग, कर्म, मोक्ष आदि विषयों पर सांख्य, बौद्ध, महर्षि पतञ्जलि, भगवद्गोपेन्द्र अन्यदर्शनकारों ने भी जिनमत पुष्ट करनेवाले वचन का प्रयोग किया है। स्थान-स्थान पर समन्वयवादिता से उनके सत्य पक्ष को उदाराशय बनकर स्वीकार किया है। तो कभी-कभी असत्य पक्ष के खंडन युक्त तर्कों को अपनी समर्थ मंडन युक्त तर्कों से खंडित भी किये है, परास्त भी किये है। मूलग्रंथ - 527 श्लोक है इस पर स्वोपज्ञ टीका तथा मुनिचंद सूरिविरचितवृत्ति है ग्रंथाग्र - 3620 श्लोक प्रमाण है। (14) लोकतत्त्व निर्णय - ‘लोकतत्त्व निर्णय' आचार्य हरिभद्रसूरि की अनुपम अनूठी अद्भुत दार्शनिक कृति है, इसमें लौकिक तात्त्विकता को तलस्पर्शी बनाते हुए, हृदयग्राही रचते हुए आचार्य हरिभद्र की समदर्शिता मुखरित होकर दार्शनिक जगत में ऊर्ध्वगामी बन रही है। दार्शनिकता में हमेशा दृष्टिकोणों की विभिन्नता, मतभेद देखने को मिलते है, जब कि आचार्य हरिभद्रने खण्डन-मण्डन की परिपाटी में तुलनात्मक दृष्टि को जैसा स्थान दिया है वैसा स्थान उनके पूर्ववर्ती समवर्ती अथवा उत्तरवर्ती किसी ग्रन्थ में हमें देखने को नहीं मिलता है। सत्य या मतैक्य के अधिकाधिक सन्निकट पहुंचे जा सके इस हेतु से उन्होंने परवादी के मन्तव्यों के हृदय में अन्तःप्रवेश करने का प्रयत्न किया है और अपने मन्तव्य के साथ परवादियों के मन्तव्यों, परिभाषा, भेद अथवा निरूपणभेद होने पर भी किसी तरह साम्यता रखते है। यह उन्होंने स्व-परमत की तुलना द्वारा अनेक स्थानों पर बताया है। जैसे कि समत्व के उद्गार इस श्लोक में देखने को मिलते है - नाऽस्माकं सुगतः पिता न रिपवस्ती• धनं नैव तै, दत्तं नैव तथा जिनेन न हृतं किंचित् कणादादिभिः / किंत्वेकान्तजगद्धितः स भगवान् वीरो यतश्चामलं, वाक्यं सर्वलोपहर्तृच यतः तद्भक्ति मंतो वयम् // 116 न तो बौद्ध मेरे पिता है और न हि अन्यतीर्थी देव मेरे शत्रु है, जिस प्रकार न तो उन देवों ने हमें धन दिया है उसी प्रकार न परमतारक अरिहंत ने हमको धन दिया है और न कणादादिओं ने हमारे धन का हरण किया है। लेकिन एकान्तभाव से सम्पूर्ण जगत का हित करनेवाले होने से तथा उनका निर्मल वचन सभी दोषों का नाशक होने से हम वीरप्रभु के प्रति भक्तिवाले है। आचार्यश्री की यह कृति दार्शनिक जगत की अनिर्वचनीय कृति इसलिए बन गई कि इसमें आ. हरिभद्र ने दार्शनिकों को जो कि खंडन के कुतर्कों में आकण्ठ निमग्न थे उनको उनमें से उर्ध्वगामी बनाने तथा सत्यमार्ग के अन्वेषक बनाने का सुंदर प्रयास किया है। उन्होंने कहा कि मतभेद में मतिवैभव मलिन हो जाता है। जबकि समभाव में समत्व की गंगा प्रवाहित होती है। अतः यहां स्वयं अपनी प्रज्ञा की प्रकर्षता को समतत्त्वभाव में रुपान्तरित करके कहते है - | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA प्रथम अध्याय | 73 0