SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आशीर्वचनम् अनंत पुण्योदय से दुर्लतम मानव भव, जैन शासन, सुगुरु एवं परम उपकारी संयम जीवन मिलता है। जहाँ आत्मिक विकास के सोपानिक संवर्धन के साथ ज्ञान के क्षयोपशम के भरपूर अवसर उपलब्ध होते है। मैंने अपनी संयम यात्रा प्रभमहावीर के शासन के पंचम गणधर प. सधर्मास्वामी के पाटपरंपरा के६८ वे आचार्य सौधर्म बहत्तपोगच्छीय. त्रिस्ततिक परंपरा के कर्णधार महान योगी श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पंचम पट्टधर कविरत्न आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र श्वरजी म.सा. तत्पट्टधर राष्ट्रसंत श्रीमदिजय जयंतसेन सूरीश्वरजी म.सा. की आज्ञानुवर्तिन पूज्या गुरुणीजी श्री लावण्य श्रीजी म.सा. की पावन निश्रा में प्रारंभ की। तब कल्पना भी नह मेरी अपनी शिष्याएँ होंगी, जो निरंतर आध्यात्मिक विकास के साथ ज्ञान पथ पर प्रवृत्त होकर, अपना लक्ष्य सिद्ध कर जैन शासन को, गुरु गच्छ को तथा मुझे गौरवान्वित करेंगी। ___अनुकूलताओं में अग्रसर होना आसान है परन्तु प्रतिकूलताओं में प्रबल पुरुषार्थकर प्रखरता पाना एवं स्वयं को निखारना कठिन है। वैसे तो मेरे साथ रही समस्त श्रमणियां अप्रमत्त है, तत्त्व निष्णाता है, समर्पण भाव से समृद्ध है तथा आपसी सौहार्दता एवं समन्वय की जागृत मिसाल है। किन्तु उनमें श्रमणीरत्ना प्रखर प्रज्ञावती, अनेकान्त शब्द को सार्थक करती हुई 'अनेकान्तलताश्री' ने विशिष्ट विषय पर विशिष्ट ज्ञान अर्जित कर "आचार्य हरिभद्र के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य" पर जो शोध-प्रबन्ध तैयार किया है वह अनुमोदनीय है। जो निरंतर श्रम में हो वह श्रमण है। जैन शासन के इसी व्यवस्था को साकार करते हुए साध्वी ने निरंतर विहार एवं श्रमण जीवन की दैनिक प्रत्येक क्रिया एवं शासन के कार्यों को प्राथमिकता देते हुए दीक्षा के ठीक बाद से ही, आध्यात्मिक ज्ञानार्जन के साथ व्यवहारिक अध्ययन कर, मेट्रीक से लगाकर बी.ए., एम.ए. एवं अब डॉ. ओफ फिलोसोफी की उपाधि हासिल कर अपने कुल को, गुरु गच्छ को, जैन शासन को एवं मुझे भी गौरवान्वित किया है। सरलता और सौहार्दता की प्रतिमूर्ति अनेकान्तलता ने मुझे सदैव 'माँ' के रूप में देखा तथा विनय वैयावच्च एवं सम्पूर्ण समर्पण एवं सेवा में सदैव तत्पर रही। “दृढ संकल्प हो तो हिमालय भी झुक जाता है।" अनेकानेक साध्वोचित प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होकर भी आचार्य हरिभद्र सूरि जैसे महान् दार्शनिक, समन्वय प्रणेता के दार्शनिक चिन्तन पर, अत्यंत कठोर पुरुषार्थ किया तथा अपनी प्रज्ञा शक्ति से अपने शोध-प्रबन्ध को अनुपम भाषाकीय सौष्ठव एवं अपूर्व शब्द संकलना के साथ सर्व देशीय एवं सर्वहितकारी चिंतन की ओर गतिशील किया तथा इस विराट शोध-प्रबन्ध को तैयार कर युगो-युगों तक श्री हरिभद्र सूरि के दार्शनिक चिन्तन को अमर कर दिया। में अपने हृदय के हार्द से इस अनूठे अप्रतिम ग्रंथ की प्रणेता साध्वी अनेकान्तलता को मंगल आशीर्वाद देती हूँ तथा कामना करती हूं कि यह शोध-प्रबन्ध अनेक शोध-अध्येताओं का प्रेरणा प्रदीप बने / इसी तरह वे उत्तरोत्तर ज्ञान वर्धन कर गुरु गच्छ की कीर्ति पताका फहराती रहे ऐसी मंगल कामना। -साध्वी कोमललताश्री
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy