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________________ सामान्य रूप से सर्वज्ञ के स्वरूप को नहीं जानना अर्थात् उसके स्वरूप से अज्ञात रहना वह मोह है, लेकिन विद्यमान सर्वज्ञ देवों का अपलाप करना अर्थात “सर्वज्ञ है ही नहीं" इस प्रकार का दुराग्रह वह तो महामोह कहलाता है, ऐसी सज्जनों की मान्यता है। 3. सर्वज्ञ अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञाता :- नैयायिक और वैशेषिक सम्पूर्ण ज्ञाता सर्वज्ञ को स्वीकारते हैं, लेकिन वैसे सर्वज्ञ वे एक ही ईश्वर है और वे अनादि सिद्ध है, शेष जीव सर्वज्ञ नहीं हो सकते है इसलिए ये दर्शन भी सर्वज्ञ की पारमार्थिक विचारणा से दूर रहे इस दर्शन की यह मान्यता है कि जीव मुक्त होता है तब ज्ञानशून्य बन जाता है, फिर मुक्तात्मा और शिला में कोई भेद नहीं है। नैषधीय चरित में हर्ष ने इस दर्शन की उपरोक्त दलील को पूर्वपक्ष के रूप में उपहास करते हैं कि - मुक्तये यः शिलात्वाय, शास्त्रमूचे सचेतसाम्। गोतमं तमवेक्ष्यैव, यथा वित्थ तथैव सः / / शिला स्वरूप मुक्ति के लिए प्राणिओं को जिसने शास्त्र कहा उस गौतम को आप देखकर जैसा जानते है वैसा ही है “गो” यानि पशु और इसके ‘तम' अर्थात् श्रेष्ठ तात्पर्य वह गौतम श्रेष्ठ पशु ही है। इस प्रकार इस विश्व में सर्वज्ञ का अर्थात् स्वरूप जानने वाले विरल ही होते है। जो सत्य को जान सके, सर्वज्ञ विषयक मूलभूत विचारणा जैन दर्शन में स्पष्ट प्रकाशित हो रही है। इस ग्रन्थ का प्रतिपादन करनेवाले बहुत ग्रन्थ है, फिर भी आचार्यश्री हरिभद्र का “सर्वज्ञ सिद्धि" ग्रन्थ विशिष्ट है। "सर्वज्ञ-सिद्धि" - इस ग्रन्थ के प्रारंभ में 21 श्लोक है। यह पद्य अनेकान्तजय पताका' से मिलता जुलता है प्राचीन न्याय पद्धति में अल्प शब्दों में बहुत कुछ कह दिया। . 'सर्वज्ञ सिद्धि' की टीका “सर्वहिता” है। इस ‘सर्वज्ञ सिद्धि' पर आचार्यश्री हरिभद्रसूरि की स्वोपज्ञ टीका होने का “विशेषस्तु सर्वज्ञ सिद्धि टीकातोऽवसेय” स्वोपज्ञ अनेकान्त जयपताका के वृत्ति के उल्लेख से यह बात ज्ञात होती है / लेकिन दुर्भाग्यवश आज टीका उपलब्ध नहीं हैं। अत: ग्रन्थ अध्ययन अत्यंत दुशक्य हो गया ऐसी परिस्थिति में ग्रन्थ सुगम और सुवाच्य बने अत: शास्त्र विशारद आचार्य श्री अमृतसूरीश्वरजी महाराजा ने अत्यंत परिश्रम से सभी को हितकारी ऐसी ‘सर्वहिता' टीका की रचनी की। साधना और आराधना के लिए सर्वज्ञ की सिद्धि आवश्यक है। इसका भावानुवाद मुनि हेमचन्द्रविजयजी म.सा. ने किया है। सर्वज्ञ-सिद्धि एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें न्यायवादिओं की सर्वज्ञता चर्चित की है और साथ में उनके मन्तव्य को महत्त्वपूर्ण मान्यता देते हुए आचार्यश्री लोकोत्तरीय सर्वज्ञ की सर्वश्रेष्ठता को समझाते हैं। इहलौकिक पुरुष उच्चकुल में जन्मा हुआ, ज्ञाता रहा हुआ, वक्ता बना हुआ ‘सर्वज्ञ' नहीं हो सकता, | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA प्रथम अध्याय | 64 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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