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________________ - “लोगुत्तमाणं' शब्द लोक शब्द के समुदायार्थ स्वरूप को व्यक्त करता हुआ उत्तमता के परम औचित्य को आलेखित बनाता है। निश्चय नय के आधार पर सूक्ष्मदर्शी आचार्यश्री ने नयवाद को निखिलता से निर्णीत कर “लोगुत्तमाणं" शब्द की लोकोत्तरीय व्याख्या व्यक्त कर अपने विशिष्ट वैदुष्य का विकास किया है। परम प्रभु को धर्म सारथि रूप से स्वीकृत कर शक्रस्तव की सर्वोत्तमता सिद्ध करते हुए आचार्यश्री हरिभद्रसूरि ललितविस्तरावृत्ति में परमात्मा का लोक लालित्य लिखित करते है। धर्म सारथि को मेरा प्रणाम ज्ञात हो, रथ के समान उस चारित्र धर्म का सम्यक् प्रवर्तक करके श्रेष्ठता से सम्पादन करनेवाले दमनता से दिव्यगुण को दर्शित करके भगवान् में सारथिपन के समस्त गुणों को चित्रित करके धर्म प्रवर्तक गाम्भीर्य योग का गहनतम गौरवशाली स्वरूप प्रस्तुत कर आचार्य हरिभद्र सभी के सहृदयी सुधी हो गये। भयों के विजेता भगवान् है, वे बुद्ध भी है, बोधक भी है ऐसे जिनेश्वरों की भक्ति से भवरोग को हम मिटा सकते है और अपने आत्मभाव को विभोर बना सकते है / यही हरिभद्र की हितैषणी धारणा रही है। आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ में सांख्यदर्शन के पच्चीस तत्त्व, न्याय, वैशेषिकके आत्मा, विभु वेदान्तदर्शन के अद्वैतवाद, मीमांसा के दर्शनज्ञान स्वयं परोक्ष बौद्धदर्शन, माध्यमिक आदि अक्रमवत्, असत् दर्शन, सांस्कृतमत अनंतमत तत्त्वान्तवादि मत का भी संकलन किया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ दार्शनिक वाङ्मय की एक उच्चनिधि है। __चैत्यवंदन सूत्रों पर श्री आवश्यक टीका में एवं नमुत्थणं सूत्र पर श्री भगवती सूत्र व श्री कल्पसूत्र की टीकाओं में शब्दार्थ बतलाये गये हैं किन्तु श्री ललितविस्तरा में सूत्रों के प्रत्येक पद पर गर्भित भव्य दार्शनिक रहस्यों के तार्किक शैली से उद्घाटनार्थ ऐसा सुन्दर विस्तार किया गया है कि ग्रन्थ का नाम ललितविस्तरा' सान्वर्थ है। अलबत्ता बौद्धों का भी एक ललित विस्तरा नामक ग्रन्थ है। मूल शक्रस्तव आदि सूत्र है जो गणधर रचित है इस पर याकिनीमहत्तरासूनु आ. हरिभद्रसूरि की ललित विस्तरावृत्ति है जो 1545 श्लोक प्रमाण है इस पर पञ्जिका' दर्शननिष्णात आचार्यदेवश्री मुनिचन्द्रसूरिश्वरजी की रचित है जो 2155 श्लोक प्रमाण है दोनों का प्रमाण 3700 श्लोक हैं। इस ग्रन्थ पर गुजराती विवेचन भी हुए है तथा हिन्दी विवेचनकार आचार्यश्री भुवनभानु सूरीश्वरजी म.सा. है। ___ इस प्रकार परमात्मभक्ति स्वरूप यह एक अद्भुत दार्शनिक कृति है ! 9. सर्वज्ञ-सिद्धि - आचार्यश्री हरिभद्रसूरि जैनशासन के गगनमण्डल में चमकते सितारे है। उनकी एक-एक दार्शनिक रचना अद्भुत दार्शनिक तत्त्वों को उजागर करती है। उसमें “सर्वज्ञ-सिद्धि” भी उनकी अलौकिक कृति है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII प्रथम अध्याय | 61
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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