________________ 29 सम्राट् कूणिक : एक चिन्तन * चम्पा का अधिपति कूणिक सम्राट था / कूणिक का प्रस्तुत आगम में विस्तार से निरूपण है। वह भगवान् महावीर का परम भक्त था / उसकी भक्ति का जीता-जागता चित्र इसमें चित्रित है। उसी तरह कूणिक अजातशत्रु को बौद्ध परम्परा में भी बुद्ध का परम भक्त माना है / सामञफलसुत्त के अनुसार तथागत बुद्ध के प्रथम दर्शन में ही वह बौद्ध धर्म को स्वीकार करता है / बुद्ध की अस्थियों पर स्तूप बनाने के लिए जब बुद्ध के भग्नावशेष बाटे जाने लगे, तब अजातशत्रु ने कुशीनारा के मल्लों को कहलाया कि बुद्ध भी क्षत्रिय थे, मैं भी क्षत्रिय हूँ, अत: अवशेषों का एक भाग मुझे मिलना चाहिए / द्रोण विप्र की सलाह से उसे एक अस्थिभाग मिला और उसने उस पर एक स्तूप बनवाया। यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि अजातशत्रु कूणिक जैन था या बौद्ध था ? उत्तर में निवेदन है कि प्रस्तुत आगम में जो वर्णन है, उसके सामने सामञफलसुत्त का वर्णन शिथिल है, उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है / सामञफलसुत्त में केवल इतना ही वर्णन है कि आज से भगवान् मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक समझें पर प्रस्तुत आगम में श्रमण भगवान् महावीर के प्रति अनन्य भक्ति कूणिक की प्रदर्शित की गई है। उसने एक प्रवृत्ति-वादुक (संवाददाता) व्यक्ति की नियुक्ति की थी। उसका कार्य था भगवान् महावीर की प्रतिदिन की प्रवृत्ति से उसे अवगत कराते रहना / उसकी सहायता के लिए अनेक कर्मकर नियुक्त थे, उनके माध्यम से भगवान् महावीर के प्रतिदिन के समाचार उस प्रवृत्ति-वादुक को मिलते और वह राजा कूणिक को बताता था। उसे कूणिक विपुल अर्थदान देता था। प्रवृत्ति-वादुक द्वारा समाचार ज्ञात होने पर भक्ति-भावना से विभोर होकर अभिवन्दन करना, उपदेश श्रवण के लिए जाना और निर्ग्रन्थ धर्म पर अपनी अनन्य श्रद्धा व्यक्त करना / इस वर्णन के सामने तथागत बुद्ध के प्रति जो उसकी श्रद्धा है, वह केवल औपचारिक है। अजातशत्रू कूणिक का बुद्ध से साक्षात्कार केवल एकबार होता है, पर महावीर से उसका साक्षात्कार * 'अनेकबार होता है। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् भी महावीर के उत्तराधिकारी गणधर सुधर्मा की धर्म-सभा में भी वह उपस्थित होता है।" ___ डॉ. स्मिथ का मन्तव्य है-बौद्ध और जैन दोनों ही अजातशत्रु को अपना-अपना अनुयायी होने का दावा करते हैं, पर लगता है जैनों का दावा अधिक आधारयुक्त है। डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है-महावीर और बुद्ध की वर्तमानता में तो अजातशत्रु महावीर का ही अनुयायी था। उन्होंने आगे चलकर यह भी लिखा है, जैसा प्रायः देखा जाता है, जैन अजातशत्रु और 1. एसाहं भन्ते, भगवन्तं शरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खुसंघ च / उपासकं भं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं // -सामञफलसुत्त. 2. बुद्धचर्या, पृ. 509. 3. आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन, पृ. 333 4. स्थानांगवृत्ति, स्था. 4, उ. 3. 5. (क) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, 1-5 (ख) परिशिष्ट पर्व, सर्ग 4, श्लो. 15-54. 6. Both Buddhists and Jains claimed his one of themselves. The Jain claim appears to be well founded-Oxford History of India by V.A. Smith, Second Edition Oxford 1923, P.51. 7. हिन्दू सभ्यता, पृ. 190-1.