________________ आचारांगसूत्र की भूमिका (ई.पू. चौथी शती) आचारांगसूत्र जैन-आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रंथ है, यह यद्यपि अर्धमागधी में लिखा गया प्राचीनतम ग्रंथ है, किंतु इसके प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कंध की भाषा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न है। जहां प्रथम श्रुतस्कंध में अर्धमागधी का प्राचीनतम रूप परिलक्षित होता है, वहां द्वितीय श्रुतस्कंध प्रथम श्रुतस्कंध की अपेक्षा भाषा की दृष्टि से परवर्ती और विकसित लगता है, यद्यपि आचारांग मूलतः अर्धमागधी प्राकृत का ग्रंथ है, किंतु उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया है, फिर भी प्रथम श्रुतस्कंध में यह प्रभाव नगण्य ही है। मेरी दृष्टि में इस प्रभाव का कारण मूलतः एक लम्बी अवधि तक इसका मौखिक बना रहना है। यह भी सम्भव है कि जो अंश स्पष्ट रूप से और सम्पूर्ण रूप से महाराष्ट्री के हैं, वे बाद में जोड़े गए हों। यद्यपि इस सम्बंध में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है, फिर भी भाषा सम्बंधी इस प्रभाव का कारण उपर्युक्त दोनों विकल्पों में से ही है। प्रथम श्रुतस्कंध मूलतः औपनिषदिक सूत्रात्मक शैली में लिखा गया है, जबकि दूसरा मुख्य रूप से विवरणात्मक और पद्यरूप में है। प्रथम श्रुतस्कंध की जो भाषा है, वह गद्य और पद्य दोनों से भिन्न है, यद्यपि प्रथम श्रुतस्कंध में भी पद्य कुछ आ गए हैं, फिर भी उसकी सूत्रात्मक शैली दूसरे श्रुतस्कंध की शैली से भिन्न है। हमें तो ऐसा लगता है कि प्राकृत ग्रंथों की रचना में सर्वप्रथम आचारांग की प्रथम श्रुतस्कंध की सूत्रात्मक शैली का विकास हुआ, फिर सहज पद्य लिखे जाने लगे, फिर उसके बाद विकसित स्तर के गद्य लिखे गए। भाषा और शैली के विकास की दृष्टि से आचारांग के दोनों श्रुतस्कंधों में लगभग तीन शताब्दियों का अंतर तो अवश्य रहा होगा। आचारांग में आचार के सिद्धांतों और नियमों के लिए जिस मनोवैज्ञानिक आधारभूमि और मनोवैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया गया है, वह तुलनात्मक अध्ययन के लिए अद्भुत आकर्षण का विषय है। .. आचारांगसूत्र का प्रतिपाद्य विषय श्रमण-आचार का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष है। चूंकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट रूप से जुड़ा हुआ है, अतः यह स्वाभाविक है कि आचार के सम्बंध में कोई भी प्रामाणिक चिंतन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहिए- यह बहुत कुछ इस बात पर