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________________ स्वसम्भूरमण समुद्र है। इस द्वार के अंत में निम्न सात समुद्घातों की चर्चा की गई है (1) वेदनासमुद्घात, (2) कषाय समुद्घात, (3) माराणान्तिक समुद्घात, (4) वैक्रिय समुद्घात, (5) तेजस् समुद्घात, (6) आहारक समुद्घात और (7) केवली समुद्घात। समुद्घात का तात्पर्य आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर लोक में प्रसारित कर विभिन्न कर्मों की निर्जरा करना है। इसी क्रम में आगे यह बताया गया है कि किन जीवों में कितने समुद्घात सम्भव होते हैं। इसके पश्चात् इस स्पर्शन नामक द्वार में विभिन्न गुणस्थानवर्ती जीव लोक के कितने भाग की स्पर्शना करते हैं, यह बताया गया है। अंत में चारों गति के जीव लोक के कितने-कितने भाग का स्पर्श करते हैं, इसकी चर्चा की गई है। पांचवें काल-द्वार के अंतर्गत तीन प्रकार के कालों की चर्चा की गई है- (1) भवायु काल, (2) कायस्थिति काल, (3) गुणविभाग काल और इसमें काल के अंतर्गत चारों गतियों के जीवों की अधिकतम और न्यूनतम आयु कितनी होती है, इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। यह चर्चा दो प्रकार से की गई है। जीव विशेष की अपेक्षा से और उनउन गति के जीवों के सर्वजीवों की अपेक्षा से यह बताया गया है कि अपर्याप्त मनुष्यों को छोड़कर नारक, तिर्यंच, देवता और पर्याप्त मनुष्य सभी कालों में होते हैं। इस चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत द्वार में कायस्थिति की चर्चा की गई है। किसी जीव विशेष का पुनः पुनः निरंतर उसी काय में जन्म लेना कायस्थिति है। इस अपेक्षा से देव और नारक पुनः उसी काय में जन्म नहीं लेते हैं। अतः उनकी कायस्थिति एकभवपर्यंत ही होती है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच को छोड़कर शेष तिर्यंच जीवों की कायस्थिति भव की अपेक्षा से अनन्तभव और काल की अपेक्षा से अनन्तकाल तक मानी गई है। जहां तक मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच का प्रश्न है, उनकी स्थिति सात-आठ भव तक होती है। काल की अपेक्षा से यह कायस्थिति तीन पल्योपम और नौ करोड़ पूर्व वर्ष की हो सकती है। कायस्थिति की चर्चा के बाद काल-द्वार में गुणविभाग काल की चर्चा है। इसमें विभिन्न गुणस्थानों के जघन्य और उत्कृष्ट काल की सीमा बताई गई है। इसी क्रम में सम्यक्त्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, लेश्या एवं मति आदि पांच ज्ञानों की काल मर्यादा की चर्चा भी प्रस्तुत द्वार में मिलती है। - इसी क्रम में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के काल मर्यादा की चर्चा करते हुए चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम और अचक्षुदर्शन का काल अनादि-अनंत,
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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