________________ 'नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु' इत्यादि सूत्र में अनुदिशों के नाम का निर्देश नहीं होने पर भी उसकी 'नवसु' पद से सूचना मान करके समाधान कर लिया गया है, उसी प्रकार से यहां भी समाधान किया जा सकता है।' यद्यपि आदरणीय पण्डितजी ने दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से यहां इस समस्या का समाधान तत्त्वार्थसूत्र के उस सूत्र की, सर्वार्थसिद्धि की व्याख्या के आधार पर करने का किया है, किंतु यहां मेरा दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। षट्खण्डागम में ऐसे अनेक तथ्य पाए जाते हैं, जो दिगम्बर परम्परा की आज की मूलभूत मान्यताओं से अंतर रखते हैं। यदि हम यहां स्त्री में सातवें गुणस्थान की सम्भावना और स्त्री-मुक्ति के समर्थक उसके प्रथम खण्ड सूत्र 93 की विवादास्पद व्याख्या को न भी लें, तो भी कुछ प्राचीन मान्यताएं षट्खण्डागम की ऐसी हैं, जो प्रस्तुत जीवसमास से समरूपता रखती हैं और दिगम्बर परम्परा की वर्तमान मान्यताओं से भिन्नता। आदरणीय पण्डितजी ने यहां यह प्रश्न उठाया है कि जीवसमास में 12 स्वर्गों की ही मान्यता है, किंतु स्वयं षट्खण्डागम में भी 12 स्वर्गों की ही मान्यता है। उसके वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार की निम्न गाथाएं 12 स्वर्गों का ही निर्देश करती हैं सक्कीसाणा पठमं दोच्चं तु सणक्कुमार-माहिंदा। , तच्च तु बम्ह-लंतय सुक्क-सहस्सारया चोत्थ // . - 5/5/70, पृष्ठ सं. 705 आणद-पाणदवासी तह आरण-अच्चुदा यं जे देवा / पस्संति पंचमखिदिं छट्ठिम गेवज्जया देवा // ' सव्वं च लोगणालि पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा / सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागं च / / - 5/5/72, पृष्ठ सं. 706 मात्र यह ही नहीं, जिस प्रकार जीवसमास में पांच ही मूल नयों की चर्चा हुई है, उसी प्रकार षट्खण्डागम में भी सर्वत्र उन्हीं पांच नयों का निर्देश हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की प्राचीन भाष्यमान परम्परा भी पांच मूल नयों का ही निर्देश करती है, जबकि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में सात नयों की चर्चा है। वस्तुतः, तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान पाठ षट्खण्डागम और जीवसमास किसी प्राचीन धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। चाहे हम परम्परा आधारों