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________________ ग्रंथ में विधिवत् और व्यवस्थित विवेचन प्रस्तुत किया है। जैन धर्म में उनसे पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों ने साधु जीवन से सम्बंधित विधि-विधानों का एवं जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा से सम्बंधित विधि-विधान पर तो ग्रंथ लिखे थे, किंतु सामाजिक जीवन से सम्बंधित संस्कारों के विधि-विधानों पर इतना अधिक व्यापक और प्रामाणिक ग्रंथ लिखने का प्रयत्न सम्भवतः वर्धमानसूरि ने ही किया है। वस्तुतः जहां तक मेरी जानकारी है। समग्र जैन परम्परा में विधि-विधानों को लेकर आचारदिनकर ही एक ऐसा आकर ग्रंथ है जो व्यापक दृष्टि से एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर विधि-विधानों का उल्लेख करता है। आचारदिनकर विक्रमसंवत् 1468 तदनुसार ई.सन् 1412 में रचित है। यह ग्रंथ मूलतः संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में होने के कारण आधुनिक युग में न तो विद्वत ग्राह्य था और न जनग्राह्य। यद्यपि यह ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में प्रकाशित भी हुआ, किंतु अनुवाद के अभाव में लोकप्रिय नहीं बन सका। दूसरे ग्रंथ की भाषा संस्कृत एवं प्राकृत होने के कारण तथा उनमें प्रतिपादित विषयों के दुरूह होने के कारण इस सम्पूर्ण ग्रंथ का हिन्दी या गुजराती में आज तक कोई अनुवाद नहीं हो सका था। ग्रंथ के प्रथम खण्ड का पुरानी हिन्दी में रूपान्तरण का एक प्रयत्न तो अवश्य हुआ, जो जैन तत्त्व प्रसाद में छपा भी था, किंतु समग्र ग्रंथ अनुदित होकर आज तक प्रकाश में नहीं आ पाया। साध्वी मोक्षरत्ना श्रीजी ने ऐसे दुरूह और विशालकाय ग्रंथ का हिन्दी भाषा में रूपान्तरण का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, उसके लिए वे निश्चित ही बधाई की पात्र है। इस ग्रंथ के अनुवाद के लिए न केवल भाषाओं के ज्ञान की ही अपेक्षा थी, अपितु उसके साथ-साथ ज्योतिष एवं परम्परा के ज्ञान की भी अपेक्षा थी। साथ ही हमारे सामने एक कठिनाई यह भी थी कि जो मूलग्रंथ प्रकाशित हुआ था, वह इतना अशुद्ध छपा था कि अर्थ बोध में अनेकशः कठिनाईयां उपस्थित होती रही, अनेक बारं साध्वीजी और मैं उन समस्याओं के निराकरण में निराश भी हुए, फिर भी इस ग्रंथ का प्रथम खण्ड पूर्ण होकर प्रकाशित हो रहा है यह संतोष का विषय है। ग्रंथ तीन खण्डों में प्रकाशित करने की योजना है। इसका प्रथम खण्ड विद्वानों और पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। दूसरे और तीसरे खण्ड का अनुवाद भी पूर्ण हो चुका है, उनके कुछ अंश स्पष्टीकरण या परिमार्जन हेतु पूज्य मुनि प्रवर जम्बूविजयजी और मुनि श्रीयशोविजयजी को भेजे गए है, वे अंश उनके द्वारा संशोधित होकर मिलने पर अग्रिम दो खण्डों के प्रकाशन को भी गति मिलेगी। पूज्या साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी इसी प्रकार आगे भी जिनवाणी के अध्ययन, अनुशीलन और प्रकाशन में रूचि लेती रहें, यही 204
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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