________________ यह भी देखने में आया है कि प्राकृत का पूरा का पूरा ग्रंथ ही अवतरित कर दिया गया है, जैसे प्रायश्चित्त विधान के सम्बंध में जीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प आदि ग्रंथ उद्धरित हुए। ग्रंथ की जो प्रति प्रथमतः प्रकाशित हुई है, उसमें संस्कृत भाषा सम्बंधी अनेक अशुद्धियां देखने में आती हैं- इन अशुद्धियों के कारण का यदि हम विचार करें तो दो सम्भावनाएं प्रतीत होती हैं- प्रथमतः यह हो सकता है कि जिस हस्त प्रत के आधार पर यह ग्रंथ छपाया गया हो वहीं अशुद्ध रही हो, दूसरे यह भी सम्भावना हो सकती है कि प्रस्तुत ग्रंथ का प्रुफ रीडिंग सम्यक् प्रकार से नहीं किया गया हो। चूंकि इस ग्रंथ का अन्य कोई संस्करण भी प्रकाशित नहीं हुआ है और न कोई हस्तप्रत ही सहज उपलब्ध है- ऐसी स्थिति में पूज्या साध्वीजी ने इस अशुद्ध प्रत के आधार पर ही यह अनुवाद करने का प्रयत्न किया है, अतः अनुवाद में यत्र-तत्र स्खलन की कुछ सम्भावनाएं हो सकती है। क्योंकि अशुद्ध पाठों के आधार पर सम्यक् अर्थ का निर्धारण करना एक कठिन कार्य होता है। फिर भी इस दिशा में जो यह प्रयत्न हुआ है, वह सराहनीय ही कहा जाएगा। यद्यपि जैन परम्परा में विधि-विधान से सम्बंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई है। आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचवस्तु प्रकरण से लेकर आचारदिनकर तक विधि-विधान सम्बंधी ग्रंथों की समृद्ध परम्परा रही है, किंतु आचारदिनकर के पूर्व जो विधि-विधान सम्बंधी ग्रंथ लिखे गए उन ग्रंथों में दो ही पक्ष प्रबल रहे- 1. मुनि आधार सम्बंधी ग्रंथ और 2. पूजा पाठ, प्रतिष्ठा सम्बंधी ग्रंथा निर्वाणकलिका, विधिमार्गप्रपा, समाचारी, सुबोधासमाचारी आदि ग्रंथों में हमें या तो दीक्षा आदि मुनि जीवन से सम्बंधित विधि-विधान का उल्लेख मिलता है या फिर मंदिर एवं मूर्ति निर्माण, मूर्तिप्रतिष्ठा, मूर्ति पूजा आदि से सम्बंधित विधि-विधानों का उल्लेख मिलता है। इन पूर्ववर्ती ग्रंथों में श्रावक से सम्बंधित जो विधिविधान मिलते हैं, उनमें से मुख्य रूप से सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण एवं उपधान से सम्बंधित ही विधि-विधान मिलते हैं। सामान्यतः गृहस्थ जीवन से सम्बंधित संस्कारों के विधि-विधानों का उनमें प्रायः अभाव ही देखा जाता है। यद्यपि आगम युग से ही जन्म, नामकरण आदि सम्बंधी कुछ क्रियाओं (संस्कारों) के उल्लेख मिलते हैं, किंतु तत्सम्बंधी जैन परम्परा के अनुकूल विधि-विधान क्या थे? इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती है। दिगम्बर परम्परा के पुराण साहित्य में भी इन संस्कारों के उल्लेख तथा उनके करने सम्बंधी कुछ निर्देश तो मिलते हैं, किंतु वहां भी एक सुव्यवस्थित समग्र विधिविधान का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। वर्धमानसूरि का आचारदिनकर जैन परम्परा