________________ नहीं होती है और मनःशुद्धि के बिना आत्मशुद्धि भी सम्भव नहीं है। वस्तुतः यह तृतीय प्रबंध आत्मविशुद्धि के ही चार चरणों को स्पष्ट करता है, जिसमें ममत्व त्याग, समत्व की साधना, सदनुष्ठान और मनःशुद्धि में चार आधार स्तम्भ है। अध्यात्मसार का चौथा प्रबंध सम्यक्त्व से सम्बंधित है। इसमें लगभग 158 श्लोक हैं। प्रस्तुत प्रबंध निम्न तीन अधिकारों में विभक्त है। सम्यक्त्व अधिकार, मिथ्यात्व त्याग अधिकार और असद्गृहत्याग अधिकार। इनमें असद् आग्रह का त्याग और मिथ्यात्व का त्याग ही सम्यक्त्व की भूमिका को स्पष्ट करता है। जब मिथ्या आग्रहों का त्याग होता है, तभी मिथ्यात्व का त्याग होता है और मिथ्यात्व के त्याग से ही सम्यक्त्व का प्रकटन होता है और बिना सम्यक्त्व को प्राप्त किए आत्मविशुद्धि और आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। इस प्रकार यह चतुर्थ प्रबंध आध्यात्मिक विकास के लिए आधारभूत है। . अध्यात्मसार का पांचवां प्रबंध योग अधिकार से प्रारम्भ होता है। इसमें मुख्यतया योग और ध्यान से सम्बंधित विषय की चर्चा की गई है। यह अधिकार 82 श्लोकों में निबद्ध है और योग और ध्यान की विस्तार से चर्चा करता है। इसमें तीन अधिकार है- योग अधिकार, ध्यान अधिकार और ध्यान स्तुति अधिंकार। इस प्रबंध को भी हम आध्यात्मिक साधन का एक प्रमुख अंग मान सकते हैं, क्योंकि अध्यात्मिक साधना बिना योग और ध्यान के सम्भव नहीं होते हैं। अतः प्रस्तुत प्रबंध आत्मविशुद्धि के साधना मार्ग को प्रस्तुत करता है। अध्यात्मसार के छह प्रबंध में दो अधिकार हैं- आत्मनिश्चय अधिकार और जिनमत स्तुति अधिकार। आत्मनिश्चय अधिकार योग और ध्यान की उपलब्धि रूप है। आत्मनिश्चय ही जिनमत का सारभूत तत्त्व है और वस्तुतः यह आत्मोपलब्धि ही जिनमत स्तुति का आधार बनती है, क्योंकि साध्य की सिद्धि के महत्त्व को स्पष्ट कर देती है। अध्यात्मसार का सातवां प्रबंध अतिसंक्षिप्त है और इसमें मात्र 60 श्लोक हैं। यह दो भागों में विभक्त है। अनुभव अधिकार और सज्जन स्तुति अधिकार। ध्यान और योग के माध्यम से जो आत्मनिश्चय होता है वही आत्मानुभूति के रूप में परिणत हो जाता है। यह आत्मानुभूति ही समग्र साधना का आधारभूत है और इससे व्यक्ति का एक अन्यरूप में ही प्रकट होता है, उसी को सज्जनस्तुति के नाम से इस ग्रंथ में अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करती है। आज से लगभग 4 वर्ष पूर्व साध्वी श्री प्रीतिदर्शनाजी से उनके शोध विषय के (190)