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________________ दृष्टिकोण में और परवर्ती जैन दर्शन के दृष्टिकोण में स्पष्ट अंतर है। वह आचार शुद्धि से विचार शुद्धि की ओर बढ़ता है। आचारांग में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है, (सव्वे भूया, सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा... एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोयं खेंयण्णेहिं पवेइए - 1 / 4 / 1) और प्रथम श्रुतस्कंध के आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है, समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (1 / 8 / 3) वस्तुतः, धर्म की ये दो व्याख्याएं दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अहिंसा व्यावहारिक समाज सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आंतरिक दृष्टि से समभाव ही धर्म है। सैद्धांतिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है, किंतु व्यावहारिक दृष्टि से वे अलग हैं। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेंद्रित (स्वदया) होती है तो समभाव बन जाती है। समत्व या समता धर्म क्यों? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि समता को धर्म क्यों माना जाए? जैन परम्परा के परवर्ती ग्रंथों में धर्म की व्याख्या वत्थु सहावो धम्मो' के रूप में की गई है, अतः समता को तभी धर्म माना जा सकता है, जबकि वह प्राणीय स्वभाव सिद्ध हो आएं, जरा इस प्रश्न पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें। जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है? आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है (आयाए सामाइए आया समाइस्स अट्ठे-भगवतीसूत्र)। वस्तुतः, जहां भी जीवन है, चेतना है, वहां समत्व के संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिए प्रयासशील बने, यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में जीवन गतिशील संतुलन है। (जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ.२५९)। स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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