________________ तत्त्वार्थसूत्र की भूमिका (ई.सन् ३री-४थी शती) तत्त्वार्थ सूत्र जैन परम्परा का एक मात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसे जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में मान्यता प्राप्त है। जैन धर्म के सभी सम्प्रदाय-दिगम्बर, श्वेताम्बर-मंदिरमार्गी, स्थानकवासी और तेरहपंथी इसे आधारभूत ग्रंथ के रूप में मान्य करते हैं। साथ ही इन सभी सम्प्रदायों में आज भी इसके पठन-पाठन की जीवित परम्परा है। अन्य धर्मावलम्बी भी इसे जैन धर्म के प्रतिनिधि ग्रंथ के रूप में स्वीकार करते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र जैन परम्परा का प्रथम ग्रंथ है, जो संस्कृत भाषा में रचित है। इसके पूर्व जैन आचार्य अपना लेखन प्राकृत भाषा में ही करते थे। भारतीय दर्शनशास्त्र के इतिहास में सूत्र युग (ई.सन् की प्रथम शती से पांचवीं शती) में दर्शन की प्रत्येक धारा ने अपनेअपने सिद्धांत ग्रंथों को संस्कृत भाषा में सूत्र शैली में रचा, जैसे वैशेषिक सूत्र, न्यायसूत्र, सांख्यसूत्र, योग सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि। इस क्रम में जैन दार्शनिकों के लिए भी यह आवश्यक हुआ कि वे अपने दर्शन का ग्रंथ सूत्र शैली में संस्कृत भाषा में लिखे। इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर उमास्वाति ने संस्कृत भाषा में सूत्र शैली में इस ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में दस अध्याय हैं। वर्तमान में इसके दो पाठ प्रचलित हैं- (1) भाष्यमान्य पाठ और (2) सर्वार्थ सिद्धि मान्य पाठ। दोनों पाठों में अध्याय संख्या तो समान है, किंतु सूत्र संख्या में थोड़ा अंतर है। भाव्य मान्य की सूत्र संख्या 344 है, जबकि सर्वार्थ सिद्धि मान्य पाठ की सूत्र संख्या 357 है। यद्यपि सर्वार्थ सिद्धि मान्य पाठ में जो अधिक सूत्र हैं, उनमें से अधिकांश सूत्र भाष्य के रूप में स्वोपज्ञ भाष्य में पाए जाते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वाति हैं। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में उमास्वामी नाम भी प्रचलित हैं, किंतु यह दक्षिण भारत में स्वामी, नामान्त के प्रभाव से है। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा में उनके नाम के साथ गृद्धपिच्छाचार्य और श्वेताम्बर परम्परा में वाचक विशेषण भी प्रचलित रहे हैं। उमास्वाति ने तत्त्वार्थ भाष्य की प्रशस्ति में अपने पिता का नाम स्वाति और माता को वात्सी अर्थात् वत्सगोत्रीय बताया है। कुछ विद्वानों ने माता का नाम 'उमा' भी बताया है, किंतु उनके इस कथन का आधार क्या है, यह मुझे ज्ञात नहीं है। प्रशस्ति में उन्होंने अपने को उच्चनागरी शाखा का तथा आर्य घोष नन्दी का प्रशिष्य और आर्य शिव का शिष्य कहा है। अपने विद्यागुरु के रूप में उन्होंने क्षमण मुण्डपाद के