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________________ इससे दोनों के उद्देश्यों में भी भिन्नता स्पष्ट होती है। वैदिक परम्परा में पूजा या भक्ति ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किये जाते हैं, जबकि जैन धर्म के अनुसार वीतराग तो प्रसन्न अथवा अप्रसन्न नहीं होते। उसमें तो अपनी आत्मा के उत्कर्ष के लिए ही भक्ति की जाती है; एतदर्थ ही जैन दर्शन में मात्र भक्ति को ही महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया तथा उसके साथ ज्ञान तथा आचरण की पवित्रता की भी अपेक्षा की गई है। जैन धर्म के समान ही आत्म-विशुद्धि का लक्ष्य पुराणों में भी अभिव्यक्त होता है। पुराणों के अनुसार भी वह आत्म-विशुद्धि मात्र भक्ति से ही प्राप्त नहीं होती है, इसलिए उनमें ज्ञान की प्राप्ति पर तथा आधार के पालन पर भी बहुत बल दिया गया है। जैन दर्शन के समान मार्कण्डेय पुराण के अनुसार योगियों का लक्ष्य भी परमात्मा की प्रसन्नता प्राप्ति न होकर परमात्मत्व प्राप्त करना होता है।.. पुराणों तथा जैन धर्म के इन विभिन्न साम्यों को देखते हुए प्रतीत होता है | कि वैदिक तथा श्रमण संस्कृति-ये दोनों संस्कृतियाँ बहुत लम्बे समय तक साथ-साथ प्रवाहित होने से परस्पर प्रभावित हुई हैं। जब दो संस्कृतियाँ सदियों से साथ-साथ पनप रही हों तो एक-दूसरे से प्रभावित होना न केवल स्वाभाविक ही है अपितु विचारों की उदारता का द्योतक भी है। ___श्रमण परम्परा के जिन मूल्यों को वैदिक साहित्य में स्थान मिला, उन्हें वैदिक समाज ने यथावत् ग्रहण नहीं किया बल्कि अपनी तरह से ढालकर आत्मसात् किया। 20 इस कारण से वे सिद्धान्त उससे स्पष्टतया भिन्न प्रतीत नहीं होते। उदाहरणार्थ दिनकर के ये शब्द द्रष्टव्य हैं “हिन्दुत्व और जैन धर्म आपस में घुल-मिलकर इतने एकाकार हो गये कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये जैन धर्म के उपेदश थे, हिन्दुत्व के नहीं। 21 भले ही इस कथन से सभी सहमत न भी हों तो भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि मौलिक रूप से जैन दर्शन में जितना इनका महत्त्व है-उतना अन्यत्र नहीं है। स्पष्टतया भिन्नता नहीं दिखाई देने पर भी संस्कृति के मौलिक रूप से वे सिद्धान्त कुछ भिन्नता अवश्य रखते हैं, जैसे वैदिक संस्कृति का मौलिक सिद्धान्त है ईश्वर कर्तृत्व (सृष्टा)। इससे कर्मवाद तथा आत्मा के पुरुषार्थ की महत्ता समाप्त हो जाती है। इसके साथ ही “सत्” (द्रव्यों) की अनादिता एवं नित्यता भी खण्डित हो जाती है। परन्तु पुराण साहित्य में कर्मवाद को, आत्मा के पुरुषार्थ को तथा “सत्" की अनादिता को सैद्धान्तिक रूप से स्वीकृत किया गया है। यही नहीं, पुराणों में वैदिक कर्मकाण्ड (हिंसात्मक कर्मकाण्ड) के स्थान पर निवृत्ति प्रधान क्रियाकांड (अनशन, ध्यानादि) को महत्त्व दिया गया है, पहले जो स्तुतियाँ करके ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त उपसंहार / 272
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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