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________________ उपसंहार . भारतीय संस्कृति अध्यात्मप्रधान संस्कृति है। विभिन्न दार्शनिकों ने आध्यात्मिक धरातल पर अपने-अपने दृष्टिकोणों को प्रस्तुत किया है। उनके दृष्टिकोण अथवा चिन्तन ही कालांतर में दर्शन कहलाए। दर्शनों में वैभिन्य का कारण यही चिंतन है। वस्तु (तत्त्व) एक ही होती है, परन्तु उनको देखने की अलग-अलग दृष्टियाँ हो सकती हैं। मात्र अपनी दृष्टि के अनुसार ही निर्णय कर लेना एकांगी होता है। उसकी सत्यता विशेष परिस्थिति एवं विशेष दृष्टि से ही मानी जा सकती है। वह सभी दृष्टियों से सत्य नहीं होता है। निम्नलिखित दृष्टांत से इसे पूर्णरूप से समझा जा सकता है। एक जगह पाँच अंधे बैठे थे, उधर से एक हाथी निकला। उन्होंने हाथी को स्पर्श करके देखा। फिर वे आपस में चर्चा करने लगे; जिसने हाथी के पाँव को छुआ उसने कहा-हाथी खंभे जैसा होता है। सूंड को स्पर्श करने वाले ने हाथी को कुर्ते की बाँह जैसा बताया। पूंछ को छूने वाले ने झाडू जैसा, कान को छूने वाले ने सूप जैसा, तथा पीठ को छूने वाले ने चबूतरे जैसा बतलाया। प्रत्येक अपने को सत्य सिद्ध करते हुए दूसरे को झुठला रहा था। अंत में कोई आँखों वाला व्यक्ति आया, जिसने उनका समाधान करते हुए कहा कि तुम सभी एक-एक अवयव के अनुसार हाथी का आकार बता रहे हो। यदि तुम सभी के कथनों का समन्वय किया जाए तो सभी सच्चे हो सकते हैं, परन्तु स्वमत को तानते रहे तथा दूसरे को झुठलाते रहने से तुम ही असत्य सिद्ध हो जाओगे। इस दृष्टान्त को प्रस्तुत करने का आशय तथा दर्शनों में जो मतभेद पाया जाता है, उसका कारण भी यही है कि प्रत्येक दर्शन अपने दृष्टिकोण को ही सत्य मानता है, जिससे अन्तिम निष्कर्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यद्यपि आत्मा, परमात्मा तथा द्रव्य सभी के लिए वही हैं, भिन्न-भिन्न नहीं; परन्तु इनके विषय में सभी दर्शनों में वैमत्त्य अवश्य हैं। प्रत्येक वस्तु के अनेक धर्म होते हैं, जिनके आधार पर उसे लक्षित किया जा सकता है; परन्तु उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का एकांगी दृष्टिकोण 265 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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