________________ * ईश्वर ज्ञान-शक्ति के द्वारा ही हमेशा समस्त कार्यों को कर लेने में समर्थ है, यह अनुमान उदाहरण रहित है। ईश्वर अपने शरीर का निर्माण करके दूसरे देह-धारियों के निग्रह और * अनुग्रह (दण्ड और उपकार) को करता है-यह कथन भी परीक्षा करने पर ठहरता नहीं है। यदि ईश्वर शरीरान्तर (अन्य शरीर) के बिना अपने शरीर को उत्पन्न करता है तो समस्त प्राणियों के शरीरादिक कार्यों को उत्पन्न करने में देहाधान व्यर्थ है और यदि शरीरान्तर से अपने शरीर को बनाता है तो अनवस्था नामक दोष प्रसक्त होगा। ऐसी हालत में प्रकृत शरीरादिक कार्यों को ईश्वर कभी नहीं कर सकता।" शरीर, जगत्, इन्द्रिय आदिक पदार्थ बुद्धिमान्-निमित्त-कारण-जन्य हैं, क्योंकि ये कार्य हैं जैसे वस्रादिक। अतः उनका बुद्धिमान् निमित्त कारण है ईश्वर। परन्तु यह प्रतिपादन सही नहीं है, क्योंकि यह पक्ष व्यपकानुपलम्भ (शरीरादि कार्य का बुद्धिमान्निमित्त कारण के साथ अन्वय-व्यतिरेक का अभाव) से बाधित है और इसलिए कार्यत्वहेतु कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास है।५ ईश्वर कर्तृत्व का निराकरण अनेक हेतुओंपूर्वक जैन, सांख्य, मीमांसा आदि . दर्शनों ने किया है। इनके अतिरिक्त अरस्तू इत्यादि विद्वान भी इसका सहेतुक विरोध करते हैं। गीता में भी इस अवधारणा का खण्डन दृष्टिगोचर होता है। उनके अनुसार “परमात्मा न लोक का कर्ता है, न कर्म अथवा कर्मफलों का संयोग कराने वाला है। प्रकृति ही इस प्रकार की प्रवृत्ति करती है। वह पाप-पुण्य का अपहरण भी नहीं करता, ज्ञान पर अज्ञान का आवरण पड़ा है, इसलिए प्राणी विमुग्ध बन जाते हैं। पुराणों में यद्यपि कर्तृत्व विवेचित है फिर भी सांख्य द्वारा प्रभावित होने से उसमें अकर्तृत्व भी परिलक्षित होता है। अन्तिम सत्ता अर्थात् परमात्मा को प्राप्त मुक्तात्माओं को अकर्ता-अभोक्ता बताया गया है। जगत् में आत्मा स्वकृत कर्मों को ही भोगता है एवं जगत्अनादिता से भी ईश्वर कर्तृत्व की धारणा खण्डित होती है। शिव पुराण में सब कुछ करने में समर्थ परमात्मा-शिव, पशुओं को अनायास ही क्यों नहीं मुक्त कर देते? इसके उत्तर में जो कुछ कहा गया है, उससे परमात्मा-शिव को निर्बलता और पशु अथवा आत्मा की प्रकृति की प्रबलता सिद्ध होती है। अतः उसको जगत्-कर्मफलों से दूर रहते हुए साक्षीमात्र कहा है।" ___पुराणों में जगत् के सञ्चालक आदि जो भी शक्तियां बताई गई हैं, वस्तुतः वे कर्मबंधन से मुक्त नहीं है तथा राग-द्वेष से युक्त हैं, अतः परमात्म-तत्त्व की उनसे भिन्नता बताते हुए अनामातत्त्व का प्रतिपादन दृष्टिगोचर होता है, जो पूर्णमुक्त . .. 251 / पुराणों में जैन धर्म