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________________ हरिवंश पुराण में भी निम्न उपसर्गों का उल्लेख है-योगी जब भ्रूमध्य में चित्त को एकाग्र करके ब्रह्म का ध्यान करता है, तब उसके समक्ष महान् धुआँ उठने : लगता है, वह धूमसमूह बहुरंगे होते हैं और मेघों के रूप में परिणत होकर जलधारायें बरसाते हैं, तब योगी के मस्तक पर महान् अग्नि उत्पन्न होती है, वह सैंकड़ों लपटों से आवृत्त होती है। इसके अनन्तर अनेक विकार योगी को व्यथित करते हैं। कभी योगी को शीतल जल में गिराया जाता है, जिससे वह आसन और आच्छादन से वंचित होकर अचेतन-सा हो जाता है। कभी गड्ढे में गिराकर जल-प्रवाह डाले जाते हैं, कभी घोररूपधारी नराकार प्राणी योगी को डंडों से पीटते हैं। फिर वे स्रीरूप धारण करके योगी से लिपटते हैं और नाना प्रलोभन देकर विघ्न उपस्थित करते इनके अतिरिक्त इन विघ्नों के शान्त होने पर सिद्धिसूचक अन्य विघ्न (दिव्य उपसर्ग) उपस्थित होते हैं। 45 ये विघ्न छः हैं 1. प्रतिभा सूक्ष्म, व्यवहित, अतीत, विप्रकृष्ट, अनागत वस्तुओं का यथातथ्य प्रतिभास (प्रतीति) को प्रतिभा कहा जाता है। इसके बल पर योगी एक स्थान पर बैठा संसार के किसी भी स्थान पर किसी भी वस्तु का सत्यज्ञान प्राप्त कर लेता है। 2. श्रवण इसके द्वारा बिना प्रयत्न के ही सम्पूर्ण शब्दों का श्रवण होता है। 3. वार्ता-संसार के समस्त प्राणियों के विषय की बातें ज्ञात होती हैं। 4. दर्शन प्रयत्न के बिना ही. दिव्य वस्तुओं का दर्शन होता है। 5. आस्वाद-प्रयत्न के बिना ही दिव्य रसों का आस्वाद होता है। 6. वेदना-संसार के सभी दिव्य गंध एवं दिव्य रसों के स्पर्श का ज्ञान होता ___ इच्छाशरीर धारण करना, आकाश-गमन, पदार्थ-परिवर्तन, जल में निवास करना, स्तम्भ करना, अदृश्य होना, स्थूल को सूक्ष्म से अलग करना, स्वेच्छागमन, अग्नि से न जलना, इच्छाशक्ति से सब कुछ कर देना, गंध देना, हल्का-भारी होना, सर्वत्र सूक्ष्म होकर विचरण करना इत्यादि विभूतियाँ भी प्राप्त होती हैं, पर इनको भी परमतत्त्व की प्राप्ति में बाधक ही समझना चाहिए। .... इस प्रकार योगी सम्पूर्ण आश्चर्यजनक शक्तियों को प्राप्त करता है एवं स्वेच्छानुसार सभी पदार्थों पर पूर्ण अधिकार रखता है, परन्तु इन सिद्धियों को भी पुराणों में उपसर्ग संज्ञा दी गई है; क्योंकि ये योगी को योग से महायोग की ओर बढ़ने में बाधक-विघ्नकारिणी होती है। इनसे प्रलोभित होकर योगी अपने प्रमुख लक्ष्य से वंचित रह जाता है। अत: योगी के लिए कहा गया है कि वह इन सिद्धियों के .. 205 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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