________________ हिंसा सदा गृहस्थानां, तस्माद् हिंसा विदर्जयेत् अहिंसेयपरो धर्मः सर्वेषा प्राणिनां द्विजाः // वस्मात्सर्व प्रयलेन वसपूतं समाचरेत् महानम पुण्यं सर्वदानोत्तमोत्तमम् / / -लिंग पुराण (2) 493 श्लो. 4-7 20. (अ) अट्ठा हणंति अणट्ठा हणंति। -प्रश्न व्याकरण 1.1 (क)-विष्णु पुराण (1) पृ. 355, 2.16.31 / (स) बी उवेह एणं बहिया य लोग, से सव्वलोगम्मि जे केइ विष्णु। -आचारांग 1.4.3 28. मत्स्य पुराण 142.12 मत्स्य पुराण 142.13, 21, 29, 30 29. (अ) भो ! भो ! प्रजापते ! राजन् ! पशून् पश्य त्वयाध्वरे संज्ञापिताञ्जीवसंधान निर्घणा न सहस्रशः। एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव सम्यदेतमय: कूटेच्छिन्दन्त्युत्थितमन्यवः / / -भागवत पुराण (श्री अमोलक ऋषि जी म. जैन तत्व प्रकाश" पृ. 438) (a) देवापहार व्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा धन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् / / -वही (स) हिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति / / -वही 30. योगशास (हेमचन्द्राचार्य) श्लो. 33-47 31.. सुसंवुडो पंचहि संवरेहिं, इह जीवियं अणवकंखमाणे वोस?काओ सुइ चत्त देहो, महाजय जयइ जण्णसिट्ठ / वो जोइ जीवो जोइ ठाणं, जोगासुया सरीरकारिसंगं कम्मेह संजम जोग संती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थं / / -उत्तराध्ययन 12.42, 44 32. (अ) ध्यानाग्नौ जीव कुण्डस्थे दममारुत दीपते असत्कर्मसमित्क्षेपैरग्निहोत्रं कुरुत्तमम् / / कपायपशुभिर्दुष्टै धर्मकर्मार्थनाशकै:. शममबहुतैर्यज्ञं विधेहि विहितं बुधैः / . (क) विष्णु पुराण 6.18.27 33. वर प्राणास्त्याज्यं न बत परिहिंसात्वभिमता / . -वामन पुराण (2) पृ. 92, अ. 59 श्लो. 29 34. - (अ) हरिवंश पुराण 2.94.41 . ( . शिव पुराण (2) पृ. 200-203, श्लो. 23-36 (स) मार्कण्डेय पुराण 3.48 35. (अ) तं सच्चं भगवं -प्रश्न व्याकरण 2.2 ( सच्चं.-लोगम्मि सारभूयं, गम्भीरतर महासमुद्दाओ। -प्रश्न व्याकरण 2.2 (स) “विसस्सणिज्जो माया व होइ, पुज्जो गुरुव्व लोगस्स 167 / पुराणों में जैन धर्म . -भागवत