________________ तप का स्वरूप. तप का स्वरूप बताते हुए पुराणों में तप के विभिन्न प्रकार भी निरूपित हैं। लिंग पुराण के अनुसार ब्रह्मचर्य का परिपालन, मौन व्रत धारण करना और निराहार रहना, ये तीनों कार्य तप कहे जाते हैं। इनके अतिरिक्त अहिंसाव्रत का परिपालन और सभी प्रकार से शांति धारण करना भी तप कहा जाता है। इससे यह अवगत हो जाता है कि तप का तात्पर्य मात्र भूखा रहना ही नहीं है। शारीरिक ही नहीं, मानसिक वाचिक संयम भी तप ही है। ___तप के व्यापक रूप को ग्रहण करते हुए जैन धर्म में उसकी परिभाषा बताई गई-“इच्छानिरोधस्तपः” कामनाओं का त्याग ही तप है। यह परिभाषा पातंजल के योग की परिभाषा “योगश्चित्तवृत्तिनिरोध” से पर्याप्त साम्य रखती है। अतएव योगदर्शन एवं पुराणों में वर्णित योगांगों तथा जैन धर्म में वर्णित तप के प्रकारों में प्रचुर समानताएँ विद्यमान हैं। जैनागमों में बताये गये तप के प्रकार अनलिखित हैं (1) अनशन = निराहार रहना, / (2) ऊनोदरी = आवश्यकता से कम सामग्री लेना, (3) भिक्षाचारी = अभिग्रह आदि के साथ विधिपूर्वक भिक्षा .. . ग्रहण करना, (4) रस परित्याग = प्रणीत, स्निग्ध एवं अति मात्रा में भोजन का त्याग, (5) कायक्लेश = शरीर को विविध आसन आदि के द्वारा कष्ट सहिष्णु बनाकर शरीर को साधना तथा उसकी चंचलता कम करना। (6) प्रतिसंलीनता = शरीर, इन्द्रिय, मन, वचन काय, कषाय आदि का . संयम करना, (7) प्रायश्चित्त = दोषविशुद्धि के लिये सरलतापूर्वक प्रायश्चित्त आदि करना, (8) विनय = गुरुजनों का आदर, बहुमान एवं भक्ति करना, (9) वैयावृत्य = गुरु, रोगी, बालक, संघ आदि की सेवा करना, (10) स्वाध्याय = शास्रों का अध्ययन, अनुचिंतन एवं मनन करना, (11) ध्यान = मन को एकाग्र कर शुभ ध्यान में लगाना, (12) व्युत्सर्ग = कषायादि का त्याग करना, शरीर की ममता छोड़कर उसे साधना में स्थिर करना एवं 145 / पुराणों में जैन धर्म