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________________ पुराण परंपरा भी सुदीर्घ एवं विशाल है। अनेक सहस्राब्दियों से फैली इस परंपरा को कुछ लोग तो वेद से भी पुरानी मानते हैं क्योंकि जो भी कुछ सृष्टि में घटित हो रहा है, उसके इतिहास को अभिलिखित करने की परम्परा तो सृष्टि के प्रारंभ के साथ शुरू हुई और आगे भी चलती ही रही होनी चाहिए। तभी मत्स्य पुराण और वायु पुराण के इस कथन को पुराणं सर्वशास्त्राणं प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। अनन्तरं तु वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः। (अर्थात् ब्रह्मा ने प्रथम शास्र, पुराण, का प्रारंभ पहले किया, फिर उनके मुँह से वेद निकले) उद्धृत करते हुए यह कहा जा सकता है कि पुराण प्रवक्ताओं की वाचिक परंपरा वेद से भी पुरानी है। अस्तु, यह तो इस बात के प्रमाण के रूप में समझा जा सकता है कि इतिहास और पुराण के अभिलेख रखने की हमारी दृष्टि बहुत पुरानी है, पाश्चात्यों ने आकर में इतिहास लिखना सिखाया हो, सो बात नहीं यह भी प्रसिद्ध है कि पुराणों का उद्देश्य सृष्टि, उसका विस्तार, राजवंश, मन्वन्तरों का इतिहास और ऐतिहासिक परम्परा को आज तक लाकर छोड़ना-इन सबके अभिलेख के रूप में ज्ञानकोष का निर्माण ही रहा था। यह उक्ति प्रसिद्ध है-सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंश्यानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् / पुराणों के ये पाँच लक्षण सहस्राब्दियों तक चलते रहे तो शायद इस एकरसता को तोड़ने के लिए इन्हें बढ़ाकर दुगुना करके दशलक्षण- पुराण की अवधारणा भी इस प्रकार व्यक्त की गई सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षान्तराणि च। वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः। . दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः / केचित्पंचविधं ब्रह्मन्महदल्पव्यवस्थया॥ भागवत 12/7/9-10. प्रस्तुत ग्रन्थ . पुराणों का विवेचन करते समय विदुषी लेखिका ने पुराणों के पाँच लक्षणों का विवरण दिया है और बड़े सारगर्भित ढंग से उनमें वर्णित विषयों का एक-एक करके जैन आगमों, सूत्रग्रन्थों, पुराणों तथा अन्य ग्रन्थों में वर्णित विषयों से तत्त्वग्राही (xii) .
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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